जगदीश्वरकी कृपासे उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दीमें नव्य बाबू नाम- धारी एक अद्भुत जीव जगतमें दिखाई पड़े हैं। पशुतत्त्वके ज्ञाताओंने परी. क्षाद्वारा निश्चय किया है कि बाहरसे तो इनमें मनुष्यके लक्षण मिलते हैं,— इनके हाथों और पैरोंमें पाँच पाँच अंगुलियाँ हैं, पूंछ नहीं है, और इनकी हड्डियाँ तथा मस्तक 'बाइमेन' जातिके सदृश जान पड़ते हैं । परन्तु इनके अन्तःस्वभावके सम्बन्धमें अभी तक वैसा निश्चय नहीं हो सका है। किसी किसी विद्वानका मत है कि ये भीतरसे भी मनुष्य हैं। कोई कोई कहते हैं कि ये बाहरसे मनुष्य किन्तु भीतरसे पशु हैं। इसी तत्वकी मीमांसाके लिए श्रीयुक्त राजनारायण बसुने कुछ समय पहले एक व्याख्यान दिया था। उक्त व्याख्यान अब मुद्रित भी हो चुका है। उसमें उन्होंने पशुपक्षका ही समर्थन किया है ।
तो हम लोग किस मतके माननेवाले हैं ? हम भी. बाबुओंको पशुश्रेणी-भुक्त माननेवाले हैं। हमने अँगरेजी समाचारपत्रोंसे इस पशुतत्त्वका अभ्यास किया है। किसी किसी ताम्रश्मश्रु ऋषिका मत यह है कि जिस तरह विधा-ताने तीनों लोकोंकी सुन्दरियोंके सौन्दर्यका तिल तिल संग्रह करके तिलोत्त-माका सृजन किया था, उसी प्रकार पशुवृत्तियोंका तिल तिल संग्रह करके यह अपूर्व नव्य बाबू-चरित्र सृजन किया गया है। विधाताने शृगालोंसे शठता ( धूर्तता ), श्वानोंसे खुशामद और भिक्षानुराग, भेड़ोंसे भीरुता, वानरोंसे अनुकरणपटुता और गर्दभोंसे गर्जन—इन सब गुणोंका संग्रह करके, दिङ्म-ण्डलको उज्ज्वल करनेवाले, भारतवर्षके एक मात्र भरोसे, और भट्ट मोक्ष- मूलरके आदरके स्थान, नव्य बाबुओंको समाजाकाशमें उदित किया है। जैसे सुन्दरियोंमें तिलोत्तमा, ग्रंथों में रिचर्डसन्स सिलेकशन्स, पोशाकोंमें फकी- रकी गुदड़ी, और भोजनोंमें खिचड़ी है, वैसे ही मनुष्योंमें नव्य बाबू लोग हैं। जिस तरह क्षीरसागरके मन्थन करनेसे जगत्प्रकाशक चन्द्र निकला था, उसी तरह पशु-चरित्र-सागरके मन्थनसे ये अनिन्दनीय बाबू-चन्द्रमा निकलकर भारतवर्षको उजेला दे रहे हैं । राजनारायण बाबू जैसे अमृतलुब्ध लोगोंको हम अच्छा नहीं समझते, जो राहु बनकर इन कलङ्कशून्य चन्द्रबिम्बोंको ग्रसना
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