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पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१३७

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बंकिम-निबन्धावली—
 

हिन्दुस्तानियोंसे कम हैं ? भला, हम जो अनुकरण करते हैं वह तो अपनी जातिके प्रभुओंका करते हैं; मगर अँगरेज किसका अनुकरण करते हैं ?

हम यह अवश्य स्वीकार करते हैं कि आधुनिक हिन्दुस्तानी जितना अनुकरण कर रहे हैं, उतनेकी आवश्यकता नहीं । हिन्दुस्तानियोंमें प्रतिभाहीन अनुकरण करनेवाले ही अधिक हैं और वे प्रायः गुणोंका अनुकरण न कर दोषोंके ही अनुकरणमें तत्पर देख पड़ते हैं। यही बड़े दुःखकी बात है। हिन्दुस्तानी लोग गुणोंका अनुकरण करनेमें उतने निपुण नहीं हैं, मगर दोषोंका अनु- करण करने में वे पृथ्वीमण्डलमें अपना सानी नहीं रखते। इसी लिए लोग हिन्दुस्तानियोंकी अनुकरणपर प्रवृत्तिको गालियाँ देते हैं, और इसी कारण राजनारायणजीने इस सम्बन्धमें जो कुछ कहा है, हम उसमेंसे बहुतसी बातोंको स्वीकार करते हैं।

अनुकरण करनेवाला प्रतिभाशाली होनेपर भी, अनुकरणमें दो भारी दोष दिखाई देते हैं। एक तो उससे विचित्रताके विकासमें विघ्न होता है। इस संसारमें विचित्रताका सुख भी एक प्रधान सुख है। पृथ्वी भरके सब पदार्थ अगर एक ही रंगके होते, तो जगतका दृश्य क्या इतना सुखदायक कभी हो सकता था ? यदि सब शब्द एक ही तरहके होते—मान लो, सब शब्द कोयलका स्वर ही होते—तो बतलाओ मधुर कुहु-स्वर कानोंको कभी अच्छा लगता? हममें यदि वैचित्र्यसुखका अनुराग न होता तो चाहे वह अच्छा भी लगता, लेकिन इस समय जिस प्रकृतिको लेकर मनुष्य-जाति पैदा हुई है उसमें विचित्रताके बिना सुख नहीं—स्वाद नहीं। अनुकरणकी प्रवृत्ति उस वैचित्र्यके मार्गमें कण्टक है। हम मानते हैं कि शेक्सपियरका मैक- बेथ नाटक एक उत्तम नाटक है; किन्तु यदि पृथ्वीके सब नाटक मैकबेथके अनुकरणहीपर लिखे गये होते, तो फिर नाटक देखनेमें क्या सुख या स्वाद रह जाता? सभी महाकाव्य अगर रघुवंशके आदर्शपर लिखे जाते तो फिर कौन महाकाव्य पढ़ता?

दूसरा दोष अनुकरणमें यह है कि उससे शीघ्र किसी काममें उन्नति नहीं होती । संसारका नियम है कि चाहे जिस कामको आप ले लीजिए, उसमें वारम्बार यत्न करते रहनेसे ही उमतिकी संभावना होती है। किन्तु यदि

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