संपादक महाशय, इन किंकरियोंने आपके श्रीचरणोंमें क्या अपराध किया है ? हम क्या जानती हैं ? आप सिखावें, हम सीखेंगी—आप गुरु हैं, हम शिष्या हैं। किन्तु शिक्षा देना और बात है, और निन्दा करना और बात है। बंग-दर्शनमें नवीनाओंके प्रति इतनी कटूक्ति क्यों की गई है ?
हम स्वीकार करती हैं कि हममें हजारों दोष हैं। एक तो स्त्री, दूसरे हिन्दुस्तानीकी लड़की; एक तो कड़वा करेला, दूसरे नीम-चढ़ा—दोष क्यों न होंगे ? किन्तु यह अवश्य है कि हमारे कुछ दोष आप लोगोंहीके गुणसे उत्पन्न हुए हैं। आप लोगोंके गुणसे, दोपसे नहीं। आप लोग हमपर इतना प्यार न करते, तो हममें इतने दोष न होते। आप लोगोंने हमको सुखी किया है, इसीसे हम आलसी हैं। अंगसे आँचल खिसक जाता है, तो उसे आप अपने हाथसे ठीक कर देते हैं। आप लोग पानी होकर जिस कमलि- नीको हृदयमें धारण करते हैं, वह क्यों न स्वच्छ जलमें अपने रूपकी छाया देखकर दिन बितावे?
हम लोग अतिथि-अभ्यागतकी ओर ध्यान नहीं देतीं, तो इसका कारण यही है कि हम लोग स्वामी पुत्र आदिके प्रति अधिक ध्यान देती हैं। हमारे छोटेसे हृदयमें आप लोगोंने इतना स्थान ले लिया है कि अन्य धर्मोके लिए स्थान ही नहीं है।
और आप क्या समझते हैं कि हम धर्मको नहीं डरती ? छिः ! धर्मसे डरनेके कारण ही मैं आपको और कुछ नहीं कह सकी। आप लोग ही हमारा धर्म हैं। आप लोगोंसे डरनेके कारण ही हम अन्य धर्मका भय नहीं करतीं। सब धर्म-कर्मोको हमने स्वामी और पुत्रको अर्पण कर दिया है। हम अन्य धर्म नहीं जानतीं। लिखना पढ़ना सिखाकर आप हमें किस धर्ममें बाँधना चाहते हैं ? चाहे जितना लिखाइए पढ़ाइए—हम हिन्दूकी लड़की हैं— सब बन्धनोंको तोड़कर पातिव्रत्यके बन्धनमें आप ही बँधी रहेंगी। यदि इसमें अधर्म हो, तो वह आप ही लोगोंका दोष है। और यदि मुझ ऐसी ढीठ बालिकाकी चञ्चलताको क्षमा कीजिए, तो मैं यह पूछती हूँ कि आप गुरु हैं हम शिष्य हैं—आप हमें कौनसा धर्म सिखाया करते हैं ?
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