पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१५२

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तीन ढंग।
 

लिखना-पढ़ना सीखें ? क्यों ? तुम्हारा मुखचन्द्र देखने में जितना सुख है, उतना ही सुख क्या लिखने-पढ़ने में भी है ? तुम्हें सुखी बनानेमें जो धर्मशिक्षा होती है, वह क्या लिखने पढ़ने में प्राप्त हो सकती है ? देखो तुम लोगोंको देखकर हमने आत्मत्याग सीखा है। भला लिखना पढ़ना क्या उसकी शिक्षा दे सकता है ? और लिखना पढ़ना सीखें किस समय ? तुम्हारे ध्यान और दर्शनमें ही दिन बीत जाता है—लिखना पढ़ना सीखनेका अवकाश कहाँ है ?

छिः ! दासियोंकी भी निन्दा !

—श्रीलक्ष्मीमणि देवी ।
 
नम्बर ३।

भला, किस रसिकचूड़ामणिने “ नवीना और प्राचीना" लिखा है ?

लेखक महाशय ! तुमने जो कुछ कहा सब सच है—एक बात भी झूठ नहीं है। हम आलसी अवश्य हैं, किन्तु यदि हम आलसी न होकर काम करती फिरतीं, तो तुम्हारी दशा क्या होती ? यह बिजली यदि तुम्हारे हृदयाकाशमें स्थिर न रहती, तो तुम किसकी ओर देखकर इस दुःख- दारिद्यमय जीवनको व्यतीत करते ? यह बिजली स्थिर न रहती तो तुम इस अन्धकारपरिपूर्ण संसारमें कहाँ प्रकाश पाते ? हम काम करें ? करेंगी, हानि क्या है ! किन्तु देखो, हमको दम भर न देखकर तैलशून्य दीपककी तरह एकाएक बुझ न जाना—जलशून्य मछलीकी तरह तड़फने न लगना— रखवालेसे छूटे हुए बछड़ेकी तरह बँबाकर घर न भर देना। हम काम करने जायँगी, किन्तु तुम फिर इस लहराते हुए रूपको न देख पाओगे! इस कलकण्ठध्वनिको दम भर न सुननेसे गीतमुग्ध हरिणकी तरह संसार- काननमें शब्दकी खोज करते फिरोगे!—वाहरे भाग्य ! फिर भी कहते हो कि हम काम नहीं करतीं!

हम अतिथि-अभ्यागतको खानेको नहीं देतीं; दें क्या, तुम घरमें कुछ रखते ही नहीं हो। मालूम नहीं, अँगरेजोंके दफ्तरमें क्या सिफत है, जानेके समय तो कन्हैया बनकर जाते हो—और लौटते हो तब कुंभकर्ण बनकर आते हो ! अपना अपना पेट—एक एक अधमने बोरेके समान ! हम हिन्दूकी लड़की हैं, इसीसे उसे किसी तरह तीस सेर दूंस कर भर देती हैं। इस पर भी अतिथि-अभ्यागतकी बात चलाते हो!

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