सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बंकिम-निबन्धावली—
 

धर्मके बन्धनमें बाँधोगे ? हानि क्या है। किन्तु हम जिन बन्धनोंमें बँधी हैं, उन बन्धनोंसे बढ़कर धर्मका बन्धन नहीं है। बल्कि धर्मका बन्धन उन बन्धनोंसे कोमल है। खैर, हमारे उन बन्धनोंको तुम ले लो। हम लिखना- पढ़ना सीख कर अपनेको धर्मके बन्धनसे जकड़नेके लिए राजी हैं। हमारी बड़ी इच्छा है कि एक बार तुम लोगोंकी अवस्थाके साथ अपनी अवस्था बदल लें। गाली-गलौज करनेके पहले जरा अपने और हमारे सुख-दुखका हिसाब करके देख लो। हमारे मरनेपर तुमको ब्रह्मचर्यसे रहना होगा, तुम किसी तरहका आनन्द नहीं मना सकोगे। तुम्हारे स्वर्गारोहणके उपरान्त हम दुबारा ब्याह करेंगी। और जीवित अवस्थामें तुम लोग बच्चा जनोगे, रसोईकी देखरेख करोगे, घरके कामकाज होने पर मूंछोंपर घूघट काढ़ कर स्त्रियोंके आचार करोगे। तुम्हारे सुखकी सीमा नहीं रहेगी। हम जवानीमें किताबें हाथमें लेकर कालेजमें जायँगी, कालेजकी पढ़ाई समाप्त होने पर कोट पटलून डॉट कर दफ्तर जायँगी। टाउनहालमें नथ हिला-हिलाकर स्पीचं देंगी, चश्मेके भीतरसे इन नेत्रोंके चंचल कटाक्षोंद्वारा सृष्टि-स्थिति-प्रलय करेंगी, और शौकिया धर्मकी रस्सी गले में डाल कर संसार-गोशालामें खली-भूसी खायँगी। हानि क्या है ! तुम अवस्थाका विनिमय करोगे ? किन्तु एक बातके लिए सावधान किये देती हूँ। तुम जब मान करके बैठोगे—और हम मनाने बैठेंगी, जब मुख रुआसा बनाकर, रसभंगीके साथ कानोंके आभूषण जरा हिलाकर, इन भ्रमरयुक्त कमलतुल्य नेत्रोंसे एक बार कटाक्ष करके, इन आभूपणभूषित हाथोंसे तुम्हारे पैर पकड़ेंगी—तब ? तब क्या तुम लोग हमारी तरह 'मान' की मानरक्षा कर सकोगे?

बड़ाइ छोड़कर वही करो; तुम घरके भीतर बैठो—हम दफ्तर जायें । जो सात सौ वर्षों से दूसरोंके जूते उठाते आ रहे हैं, वे भी मर्द हैं ? कहते लज्जा नहीं आती?*

—श्रीरसमयी देवी।
 
___________________
_________________________________________________________________

* पहलेका प्रबन्ध 'बंग-दर्शन' मासिकपत्रमें 'प्राचीना और नवीना' शीर्षक देकर प्रकाशित हुआ था । उसके बाद ये तीन कल्पित पत्र लिखकर, स्त्रियोंकी ओरसे जो उत्तर दिये जा सकते थे, वे दिये गये थे।

१४०