शिक्षा कैसे होती है, यह बात शायद इस देशके लोग सहजमें समझ नहीं सकते।
इस देशकी हर एक भाषामें अधिकसे अधिक बीस बीस पचीस पचीस अखबार निकलते हैं। (अब इस संख्या में वृद्धि हो गई है।) इनमेंसे किसीके ग्राहक दो सा हैं, किसीके ग्राहक पाँच सौ हैं। अखबारोंके तमाम पाठकोंकी संख्या दस पाँच हजार या इससे कुछ अधिक होगी। किन्तु यूरोपके हर एक देशमें सैकड़ों, यहाँ तक कि कहीं कहीं हजारों अखबार निकलते हैं। एक एक अखबारके ग्राहक हजारों और लाखों हैं। उनको पढ़नेवालोंकी संख्या लाखों-करोड़ोंके लगभग है। इसके ऊपर हर एक नगरमें कई कई सभायें हैं। गाँव गाँवमें वक्तृतायें हुआ करती हैं। जिसको जो कहना होता है, वह अपने परोसियोंको जमा करके व्याख्यानमें उनको वह समझा देता है। वह बात सैकड़ों अखबारोंमें छप जाती है। सैकड़ों भिन्न भिन्न ग्रामों और नगरोंमें प्रचारित और विचारित होती है । लाखों लोग उस बातको पढ़कर उससे शिक्षा प्राप्त करते हैं और एक एक भोजनके निमन्त्रणमें ही स्वादिष्ट भोजन करते करते यूरोपके लोग जिस शिक्षाको प्राप्त करते हैं, उस शिक्षाका अनुभव ही हमें नहीं हो सहता। हमारे देशमें जो थोड़ेसे अखबार हैं, उनकी दुर्दशाकी बात तो पहले ही कही जा चुकी है। रही वक्तृतायें, सो वे तो लोकशिक्षाकी राह होकर भी नहीं जातीं। इसके बहुतसे कारणोंमें एक प्रधान कारण यह है कि वक्तृतायें प्रायः देशीभाषाओंमें नहीं दी जातीं। उन्हें बहुत ही कम लोग सुनते हैं, बहुत ही कम लोग पढ़ते हैं और बहुत ही कम लोग समझते हैं। इसके सिवा अधिकांश वक्तृताओंके असार होनेके कारण और भी कम लोग उनसे शिक्षा पाते हैं।
इस समय एसी दशा होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सदासे यहाँ लोक-शिक्षाके उपायका अभाव चला आरहा है। लोक-शिक्षाका उपाय न था, तो शाक्यसिंहने किस तरह सारे भारतवर्षको बौद्धधर्मकी शिक्षा दी? विचार कर देखो, बौद्धधर्मके कूट-तर्कोको समझनेमें हमारे आधुनिक दार्शनिकोंके सिरका पसीना पैरों आता है । कलकत्ता-रिव्यूमें इसके प्रमाण मौजूद है कि मैक्समूलर उन तर्कोको समझ नहीं सके । वही कूट- तत्त्वमय, निर्वाणवादी, अहिंसाप्रधान दुर्बोध्य धर्म शाक्यसिंह और उनके
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