शष्योंने सारे भारतवर्षको—गृहस्थ, परिव्राजक, पण्डित, मूर्ख, काम-काजी, उदासीन, ब्राह्मण, शूद्र सबको—सिखलाया था । लोक-शिक्षाका क्या उस समय उपाय नहीं था ? शङ्कराचार्यजीने उसी दृढ़बद्धमूल दिग्विजयी साम्यप्रधान बौद्धधर्मको लुप्त करके फिर समग्र भारतवर्षको वेदान्तकी शिक्षा दी। उस समय क्या लोकशिक्षाका उपाय नहीं था ? अभी कुछ ही देन हुए; बंगालके चैतन्यदेवने उड़ीसे भरको वैष्णवधर्ममें दीक्षित कर लिया। पर अब देखते हैं कि राममोहनरायसे लेकर कालेजके लड़के तक— सभी—ब्राह्मधर्मकी घोषणा करते फिरते हैं, किन्तु लोग उसे नहीं सीखते। अर्थात् पहले लोकशिक्षाके उपाय थे, पर अब नहीं हैं।
यहाँ लोकशिक्षाका एक बहुत सुन्दर उपाय था। वह उपाय यहाँ कथा बाँचनेकी प्रथा थी। आज कथा बाँचनेकी प्रथाका प्रचार एकदम नष्ट न हो जाने पर भी वह निस्सार और विकृत हो गई है। उस जमानेमें कथा बाँचने- वाले व्यास मस्तकमें चन्दनका तिलक और गलेमें सुगन्धित पुष्पोंकी माला धारण किये व्यासगद्दीपर बैठकर सीताके सतीत्व, अर्जुनके वीरधर्म, लक्ष्मण- के सत्यव्रत, भीष्मके इंद्रियजय, राक्षसीके प्रेम-प्रवाह, दधीचिके आत्म- समर्पण, हरिश्चन्द्रकी कठोर परीक्षा आदि विषयोंकी सुन्दर व्याख्या मधुर कण्ठसे सबके सामने सुनाते थे। किसान, रोजगारी, नीचजातिके लोगतक उसके द्वारा सहजमें सुशिक्षा पाते थे। साधारण श्रोता तकको उससे यह ज्ञान होता था कि धर्म नित्य है, धर्म देव है, अपना ही खयाल रखना अश्रद्धाकी बात है, जीवन पराये लिए ही मिला है, ईश्वर हैं, वे विश्वकी सृष्टि, उसका पालन और संहार करते हैं। वे यह जान जाते थे कि पाप पुण्य है, पापका दण्ड और पुण्यका पुरस्कार है, अहिंसा परम धम है—लोकहित परम कार्य है । ऐसी शिक्षा देनेवाले कथक अब कहाँ गये ? जो कुछ अब ऐसे वक्ता हैं भी, वे इस कारण उस कामको छोड़ बैठे हैं कि आजकलके नवशिक्षित सम्प्रदायके लोग उनसे अरुचि रखते हैं। कथा बाँचनेवालोंको हरामखोर तक कहने में संकोच नहीं करते । प्राचीन इतिहास पुराणोंकी सभी बातोंको गप्प मान कर उनपर अश्रद्धा प्रकट करते हैं। ब्रांडी पीना, वेश्याके मुँहसे " आज रंगीले रसिया देखे मैंने " सुनने में जिन्हें लाभ समझ पड़ता है,
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