पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१७२

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पुष्प-नाटक।
 

यको कितनी देर हुई ! उस समय देखो, यह महापाप क्रमशः आकाशमें चढ़कर, ब्रह्माण्डको तापसे जलाकर, क्रमशः पश्चिम दिशामें नीचे गिरता हुआ शायद अनन्तमें डूब जानेवाला है । जाने दो ! दूर हो—हाँ, तम इतनी देरतक कहाँ थ प्राणनाथ ? तुम्हें पाकर शरीर शीतल हुआ, हृदय भर गया—छिः मिट्टीमें न गिरना। मेरे हृदयमें तुम हो, इससे यह जली हवा मुझे नहीं जलाती, बल्कि तुम्हारी शोभा बढ़ा रही है । इस धूपके प्रकाशसे तुम रत्नके समान सुन्दर चमकीले जान पडते हो । तुम्हारे रूपसे मैं भी रूपवती हो रही हूँ। ठहरो ठहरो हृदयको शीतल करनेवाले ! मेरे हृदयमें ठहरो, मिट्टीमें न गिरना।

बेला—(विष्णुकान्तासे, आडमें ) देखो, बहन विष्णुकान्ता—लड़कीके ढंग देखो!

विष्णुकान्ता—किस लड़कीके ?

बेला—इसी जूहीके । अभीतक मुँह बंद किये, गर्दन झुकाये, दुकानकी लैयाकी तरह पड़ी हुई थी—उसके बाद आकाशसे वर्षाका एक बिन्दु— नवाबजादेकी तरह हवाके घोड़ेपर चढ़ा हुआ आकाशसे ऊपर आकर टपक पड़ा। वैसे ही लड़की खुलकर खिलकर फूल उठी। अभी कमसिन है न ! बच्चोंका ढंग ही जुदा होता है।

विष्णुकान्ता—आः, छि छि।

जूही—सो इतनी देर कहाँ थे प्राणनाथ ! तुम्हें नहीं मालूम कि मैं तुम्हारे विना जीवन-धारण नहीं कर सकती।

बिंदु—दुःखित न होना प्राणप्यारी ! बहुत समयसे आनेका विचार कर रहा था, किन्तु नहीं आ सका । तुमको नहीं मालूम, आकाशसे पृथ्वीपर आनेमें अनेक विघ्न हैं। अकेले आया नहीं जाता, दलबल लेकर आना पड़ता है। सबका मिजाज और मर्जी सब समय एकसी नहीं रहती । कोई आपके रूपको पसन्द करता है—अपनेको बड़ा आदमी समझकर आकाशके ऊँचे स्थानमें अदृश्य होकर रहना पसंद करता है। कोई कहता है, जरा ठंडक होने दो, वायुकी निचली तह बहुत गर्म है। अभी

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