पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१७३

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बंकिम-निबन्धावली—
 

जानेसे सूख जानेका डर है। पृथ्वीपर उतरनेको अधःपतन समझकर कुछ साथी अधःपतनके लिए तैयार नहीं होते। कोई कहता है, मिट्टी में गिरनेकी कोई जरूरत नहीं है, आकाशमें कलमुँहा मेघ बनकर सदा रहें वह भी अच्छा । कोई कहता है, मिट्टीपर गिरनेकी जरूरत नहीं है, फिर उन्हीं पुराने नदी नालोंके भीतर होकर खारी समुद्र में गिरना होगा। उसकी अपेक्षा यह अच्छा है कि आओ, इस उज्ज्वल धूपमें खेलें। सब मिलकर इन्द्रधनुषकी शोभा उत्पन्न करें, पृथ्वी और आकाशके लोग उसे देखकर मोहित हो जायेंगे। खैर किसी तरह अगर सब आकाशमें एकत्र हो जाते हैं, तो भी सबकी राय नहीं मिलती। कोई कहता है, अभी रहने दो-अभी आओ, कालिमामयी काली कराल मेघमाला बनकर बिजलीकी माला गलेमें धारणकर यहाँ बैठे बैठे हम बहार देखेंगे । कोई कहता है—इतनी जल्दी क्यों है ? हम जलवंशमें उत्पन्न हैं, भूलोकका उद्धार करने जायँगे—क्या इसी तरह चुपचाप चलेंगे? आओ, जरा गरज तो लें। कोई गरजता है, कोई बिज- लीकी क्रीड़ा देखता है। बिजली बड़े रंग दिखलाती है—कभी इस मेघ- की गोदमें, कभी उस मेघकी गोदमें, कभी आकाशके छोरपर, कभी आका- शके बीचमें, कभी धीरे धीरे दमकती है और कभी जोरजोरसे चमकती है।

जूही—अगर बिजलीपर इतने लट्टू हो रहे थे तो फिर क्यों आये ? वह बड़ी है और हम क्षुद्र हैं।

बिन्दु—अरे! छि ! छि ! नाराज क्यों होती हो? मैं क्या उस ढंगका आदमी हूँ ? देखो छोटे छोटे छोकरे हलके होनेके कारण कोई नहीं आये। हम भारी आदमी नहीं रह सके-उतर आये। खासकर इसलिए कि बहुत दिनोंसे तुम लोगोंको देखा सुना नहीं था।

कमलिनी—(तालाबके भीतरसे) वाह ! बड़ा भारी है ! आ न। तुझ ऐसे हजारोंको एक पत्तेपर बिठा रख सकती हूँ।

बिन्दु—असल बात भूल गई ? तालाबको भरता कौन है ? हे पंकजिनी, वृष्टि न होती तो जगतमें पंक (कीचड़) भी न होती, जल भी न होता। तुम भी इस तरह हँस हँसकर अपनी बहार न दिखा सकतीं। हे जलजिनी, तुम हमारे घरकी लड़की हो, इसीसे हम तुमको हृदयपर रखकर पालते

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