पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१७७

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बंकिम-निबन्धावली—
 

८ श्रोता—यह एक रूपक है । मैं इसका अर्थ करूँगा।

९ श्रोता—अच्छा ग्रन्थकार ही न कहें, यह क्या है ?

ग्रन्थकार—यह तुम्हारे अनुमानोंमेंसे कुछ नहीं हैं । मैं इसका अँगरेजीमें टाइटिल Title दूंगा—

" A true and faithful account of a lamentable Tragedy which occurred in a flower-pot on the evening of the 19th July, 1885 Sunday, and of which the writer was an eye-witness."

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सांख्यदर्शन*।
प्रस्तावना।

भारतके जितने प्राचीन दर्शन शास्त्र हैं, उनमें सांख्य दर्शन प्रधान है। यह दर्शन बहुत प्राचीन और बहुत महत्त्वका है। प्राचीन शैलीके विद्वानोंमें यद्यपि इसकी विशेष चर्चा नहीं है; परन्तु आधुनिक विद्वान् इसे बहुत आदरकी दृष्टिसे देखते हैं। वे कहते हैं कि जो हिन्दुओंके पुरावृत्त या इतिहासका अध्य- यन करना चाहते हैं, उन्हें सांख्य दर्शनका अध्ययन अवश्य करना चाहिए— इसके विना उसका सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता। क्यों कि हिन्दू समाजकी पूर्वकालीन गति सांख्यप्रदर्शित मार्गपर बहुत दूर तक होती रही है। वर्तमान हिन्दू समाजके चरित्रका अध्ययन करनेके लिए भी सांख्य दर्शनका अध्ययन आवश्यक है। सांख्यमें इस चरित्रके मूलका बहुत कुछ पता मिलता है।

संसार दुःखमय है और केवल दुःख निवारण करना ही पुरुषार्थ है, यह बात जिस तरह हिन्दुओंकी हड्डी हड्डीमें घुसी हुई है, उस तरह शायद पृथिवीकी और किसी भी जातिमें इसने स्थान नहीं पाया है। इसका बीज

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  • निबन्धावलीके इस संस्करणमें यह लेख पहले दो संस्करणोंकी अपेक्षा अधिक है। इसका लगभग अर्धांश जैनहितैषी ( भाग १० अंक ९-१० सन् १९१४ ) में प्रकाशित किया जा चुका था, शेष इस समय अनुवाद करके सम्पूर्ण किया गया।
—प्रकाशक ।
 

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