कका कारण ख, खका कारण ग, गका कारण घ; इस तरह कारणपरम्पराका पता लगाते लगाते किसी एक स्थानमें अवश्य ही ठहरना पड़ेगा। क्यों कि कारण- श्रेणी कभी अनन्त नहीं हो सकती। हम जिस फलको खा रहे हैं, वह अमुक वृक्षमें फला है, वह वृक्ष एक बीजसे उत्पन्न हुआ था और वह बीज अन्य वृक्षके फलसे उत्पन्न हुआ था। इस तरह अनन्तानुसन्धान करनेपर भी एक आदिम बीज अवश्य मानना पड़ेगा। इसी तरह जगसमें जो आदिम बीज है, जहाँ कारणानु- सन्धान बन्द हो जाता है, सांख्य उसी आदिम कारणको मूल प्रकृति कहता है। ( १७४)
जगतकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें दूसरा प्रश्न यह है कि मूल कारण चाहे जो हो, परन्तु उस कारणसे इस विश्वसंसारने ये रूप अवयव आदि किस प्रकार प्राप्त किये ? सांख्यकारका उत्तर यह है—
ये जागतिक पदार्थ २५ प्रकारके हैं—१ पुरुष, २ प्रकृति, ३ महत् (मन), ४ अहंकार (अहंज्ञान), ५-९ पंचतन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) १०-२० ग्यारह इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और अन्तरिन्द्रिय) २१-२५ स्थूल भूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और आकाश)। इन्हींसे विश्व निर्माण हुआ है।
इन तत्त्वोंका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं है। इस समय ये बहुत संगत और अर्थयुक्त भी नहीं जान पड़ते। किन्तु हमारे पुराणों में जो सृष्टि-क्रिया वर्णित है, वह इसी सांख्यके मतसे ब्रह्मांडकी बातका संयोग मात्र है।
वेदमें कहीं भी सांख्यदर्शनानुयायी सृष्टिका वर्णन नहीं है । ऋग्वेद, अथर्ववेद और शतपथब्राह्मणमें सृष्टिकथन है, किन्तु उनमें महदादिका उल्लेख नहीं है। मनुमें भी सृष्टिकथन है, पर उसमें भी महदादि नहीं है। रामायणकी भी यही दशा है। केवल पुराणों में है। अतएव वेद, मनु और रामायणके बाद और निदान विष्णु भागवत और लिङ्गपुराणके पूर्व सांख्यदर्शनकी रचना हुई है। महाभारतमें भी सांख्यका उल्लेख है। परन्तु यह निश्चय करना कठिन है कि महाभारतका कौन अंश पुराना है और कौन नया । कुमारसम्भवके दूसरे सर्गमें जो ब्रह्मस्तोत्र है, वह सांख्यानुसारी है।
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