सांख्यप्रवचनमें विष्णु, हरि, रुद्रादिका उल्लेख नहीं है। पुराणोंमें है। पौराणिकोंने निरीश्वर सांख्यको अपने मनके अनुकूल गढ़ लिया है ।
सांख्यदर्शन निरीश्वरवादी है और इसी रूपमें उसकी प्रसिद्धि भी है; परन्तु कोई कोई लोग कहते हैं कि वह निरीश्वरवादी नहीं है। डाक्टर हाल ऐसे ही लोगोंमेंसे एक हैं। मेक्समूलर भी ऐसा ही मानते थे, परन्तु अब उनका मत बदल गया है। कुसुमांजलिके कर्ता उदयनाचार्य कहते हैं कि सांख्यमतावलम्बी ' आदि विद्वान् ' के उपासक हैं। अतएव उनके मतसे भी सांख्य निरीश्वर नहीं है। सांख्यप्रवचनके भाष्यकार विज्ञानभिक्षुका भी कथन है कि 'ईश्वर नहीं है। यह कहना कापिलसूत्रका उद्देश्य नहीं है। अतएव इस विषयको कुछ विस्ता- रके साथ बतलानेकी आवश्यकता है कि सांख्यदर्शन निरीश्वर क्यों है।
सांख्यप्रवचनके प्रथम अध्यायका ९२ वाँ सूत्र इस बातका मूल है। वह सूत्र यह है:-" ईश्वरासिद्धेः " । पहले इस सूत्रका अभिप्राय समझ लेना चाहिए।
सूत्रकार इसके पहले 'प्रमाण' का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने कहा है, प्रमाण तीन प्रकारके हैं,—प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। ८९ वें सूत्रमें प्रत्य- क्षका लक्षण बतलाया है—" यत्सम्बन्धं सत्तदाकारोल्लेखिविज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्। " अतएव जो सम्बद्ध नहीं है, वह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इस लक्षणमें दो दोष लगते हैं। एक तो यह कि योगिगण योगबलसे असम्बद्धको भी प्रत्यक्ष कर सकते हैं। आगेके ९०-९१ वें सूत्रोंमें सूत्रकारने इस दोषको अपनीत कर दिया है। अब रहा दूसरा दोष यह कि ईश्वरका प्रत्यक्ष नित्य है, इस लिए उसके सम्बन्धमें ' सम्बन्ध ' की बात व्यवहृत नहीं हो सकती। इसका उत्तर उक्त ९२ वें सूत्रसे सूत्रकार देते हैं कि ईश्वर सिद्ध नहीं है, अर्थात् ईश्वर है, इसका कोई प्रमाण नहीं है। अतएव उसका प्रत्यक्ष सम्बन्धमें व्यवहृत न होनेसे यह लक्षण दुष्ट नहीं हुआ। यहाँपर भाष्यकार महाशय कहते हैं कि दॆखो, यह कहा गया है कि 'ईश्वर असिद्ध' है। किन्तु यह तो नहीं कहा गया है कि 'ईश्वर नहीं है'?
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