अर्थात् वेदविद्यासे इस पराविद्याको श्रेष्ठतर बतलाया है x। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २; श्लोक ४२—४४ में वेदपरायणोंकी निन्दा की गई है + । भागवत- पुराण (४।२९, ४२) में नारद कहते हैं कि परमेश्वर जिसपर अनुग्रह करते हैं वह वेद त्याग कर देता है★। कठोपनिषत्में कहा है—"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया बहुना श्रुतेन।" अर्थात् वेदके द्वारा आत्मा लभ्य नहीं हो सकता।
शास्त्रानुसन्धान करनेसे इस प्रकारके और भी वचन मिल सकते हैं । पाठक देखेंगे कि 'वेदको क्यों मानें' इस प्रश्नका हमने कोई उत्तर नहीं दिया। देनेकी हमारी इच्छा भी नहीं है। जो समर्थ हैं, वे इसकी मीमांसा करेंगे। हमने पूर्वगामी पण्डितोंके प्रदर्शित किये हुए पथपर परिभ्रमण करके जो देखा है, वही पाठकोंके सामने निवेदित कर दिया है।
x द्वे विद्ये वेदितव्ये इति हस्य यद्ब्रह्मविद्या वदन्ति परा चैषा परा च । तत्रा- परा ऋग्वेदो यजुर्वेदं साम। वेदाऽथर्ववेदः शिक्षाकल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया तदाक्षयमधिगम्यते।
वेदवाक्यरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहलां भोगैश्वर्यगति प्रति ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्वैगुण्यो भवार्जुन ।मन्त्रलिङ्गव्यवच्छिन्नं भजन्तो न विदुःपरम् ॥
यदा यस्यानुगृह्णाति भगवानात्मभावितः ।
स जहाति मतिं लोके वेदे च परिनिष्ठितम् ॥१८६