पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/४०

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ज्ञान।
 

देख आया है, तो इस बातपर कोई विश्वास न करेगा। उसके उक्त उपदेशसे मिथ्याज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतएव व्यक्ति-विशेषका उपदेश ही प्रमाण कहकर ग्राह्य है। तथापि वह ज्ञान प्राप्त करनेके पहले यह मीमांसा आवश्यक है कि कौन विश्वासके योग्य है और कौन नहीं। अब प्रश्न यह है कि किस प्रमाणके ऊपर निर्भर करके यह मीमांसा की जाय ? किस प्रमाणके ऊपर निर्भर करके 'मनु' आदिका कहना 'आप्त-वाक्य' समझ कर ग्रहण किया जाय और रामू श्यामूकी बातें अग्राह्य समझी जाय ? देखा जाता है कि अनुमानके द्वारा इस समस्याको हल करना होगा। मनुके साथ हमारे पादरी साहबका मतभेद है। तुम सदासे सुनते आ रहे हो कि मनुजी अभ्रान्त ऋषि थे और पादरी साहब स्वार्थपर साधारण आदमी हैं। इस लिए तुमने अनुमान किया कि मनुकी बात ग्राह्य है और पादरीकी बात अग्राह्य है। मनुके समान अभ्रान्त ऋषिने गोमांस सेवनका निषेध किया है। इसीसे तुमने अनुमान किया कि गोमांस- अभक्ष्य है। तब 'शब्द' को एक स्वतन्त्र प्रमाण न कहकर अनुमानके अन्तर्गत ही क्यों नहीं कहते ?

केवल यही नहीं। जिसके कुछ उपदशोंको ग्राह्य समझते हो उसीके अन्य कुछ उपदेशोंको अग्राह्य समझते हो। माध्याकर्षणके सम्बन्धमें न्यूट- नका जो मत है उसे तुम मानते हो, किन्तु प्रकाशके सम्बन्धमें जो उनका मत है उसे छोड़कर तुम क्षुद्रतर बुद्धिजीवी यंग और फेनेल साहबका मत मानते हो। इसका कारण क्या है ? इसके कारणका अनुसंधान करनेसे वह कारण अनुमान ही जान पड़ेगा। अनुमानके द्वारा तुमने जाना है कि माध्या- कर्षणके सम्बन्धमें न्यूटनका मत सत्य है और प्रकाशके सम्बन्धमें जो उनका मत है वह गलत है। यदि शब्द एक जुदा ही प्रमाण होता तो उसके सभी मतोंको तुम स्वीकार करते।

किन्तु भारतवर्षमें यही होता है। भारतवर्ष में जिसका एक मत अभ्रान्त और ग्राह्य है उसके सभी मत ग्राह्य समझे जाते हैं। इसका कारण यही है कि यहाँ शब्द एक स्वतन्त्र प्रमाण माना गया है। आर्योंके दर्शनशास्त्रकी आज्ञा है कि आप्तवाक्यमात्र ग्राह्य हैं । यह कहनेकी तो कोई आवश्यकता ही

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