पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/४५

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बंकिम-निबन्धावली—
 

कुछ निश्चय ही नहीं हुआ कि वह पुण्य क्या है और किस प्रकार उसका उपार्जन किया जाता है।

अच्छा मान लो, यह भी निश्चित हो गया है। मान लो, ब्राह्मणभक्ति, गंगास्नान, तुलसीकी माला और हरिनामकीर्तन इत्यादि पुण्यकार्य हैं। ये ही मनुष्य-जीवनके उद्देश्य हैं। अथवा मान लो कि रविवारको काम न करना, गिरजे में बैठकर आँखें मूंदना और खीष्टधर्मके सिवा दूसरे धर्मोसे विद्वेप ही पुण्यकर्म है ! इसको भी जाने दो। दान, दया, सत्यनिष्ठा आदिको सभी लोग पुण्यकार्य मानते हैं। किन्तु तथापि यह नहीं देख पड़ता कि दान, दया, सत्यनिष्ठा आदिको अधिक लोग अपने जीवनका उद्देश्य समझनेका अभ्यास रखते हों और उन्हें सिद्ध करते हों। अतएव इस बातको सभी लोग स्वीकार नहीं करते कि पुण्य ही जीवनका उद्देश्य है। जहाँ यह बात सर्वस्वीकृत है वहाँ वह विश्वास केवल जबानी जमा-खर्च भर है।

वास्तवमें अगर देखा जाय तो जीवनके उद्देश्यके तत्त्वकी मीमांसाको लेकर मनुष्यलोकमें इस समय भी बड़ी गड़बड़ मची हुई है। लाखों वर्ष पहले, अनन्तसमुद्रके गहरे जलके भीतर जो अणुवीक्षणसे देख पड़नेवाले जीव रहते थे उनके देहतत्त्वको लेकर तो मनुष्य विशेष व्यस्त देख पड़ते हैं, परन्तु इस बातके निर्णयकी विशेप चेष्टा नहीं देख पड़ती कि इस संसारमें उन्हें खुद क्या करना चाहिए। बहुत लोग किसी तरह अपना पेट पालकर अन्यान्य बाह्य इन्द्रियोंको चरितार्थ करके आत्मीय-स्वजनोंके भी पेट पाल सकनेको ही मनुष्यजन्मकी सफलता समझते हैं। इसके सिवा किसीतरह औरोंपर प्रधानता प्राप्त करना भी एक उद्देश्य देख पड़ता है। पेटपालनके उपरान्त, धनसे हो या किसी अन्य प्रकारसे हो, लोगोंमें यथासाध्य प्रधानता प्राप्त करनेको अपने जीवनका उद्देश्य समझकर लोग काम करते हैं। लोगोंकी समझमें यह प्रधानता प्राप्त करनेका उपाय धन, राजपद और यशकी प्राप्ति ही है। अतएव, मुखसे चाहे कोई न कहे, किन्तु कार्यके द्वारा धन, पद और यशकी प्राप्ति ही मनुष्य-जीवनका सर्ववादिसम्मत उद्देश्य जान पड़ता है। इन्हीं तीनोंके

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