पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/४६

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मनुष्यत्व क्या है ?
 

समवायको समाजमें सम्पत्ति कहते हैं। तीनों बातोंका एकत्र होना दुर्लभ है, इसलिए दो-एक—खासकर धन—होनेसे भी उसे सम्पत्ति मान लेते हैं। इस सम्पत्तिकी आकांक्षा ही समाजमें जीवनका मुख्य उद्देश्य समझी जाती है और यही समाजके घोरतर अनिष्टका कारण भी है। समाजकी उन्नतिकी गति धीमी होनेका प्रधान कारण यही है कि धीरे धीरे बाह्य सम्पत्ति ही मनुष्य-जीवनका प्रधान उद्देश्य बनती जाती है। केवल साधारण मनुष्योंके खयालमें नहीं, यूरोपके प्रधान पण्डितों और राजपुरुषोंके खयालमें भी यह बाह्य सम्पत्ति ही मनुष्य-जीवनका प्रधान उद्देश्य है। शायद ही कभी कभी बीचमें ऐसा कोई संसारमें उत्पन्न हो जाता है कि वह बाह्यसम्पत्तिको मनुष्य-जीवनका उद्देश्य समझना कैसा, उसे जीवनके उद्देश्यकी सिद्धिका प्रधान विघ्न समझकर दलसे अलग हो जाता है। जिस राज्यसम्पत्तिको अन्य लोग जीवनकी सफलताकी सामग्री समझते हैं उसीको विघ्न समझकर, शाक्यसिंहने लात मार दी। भारतमें और यूरोपमें भी ऐसे मुनिवृत्तिधारी अनेक महापुरुष उत्पन्न हुए हैं जिन्होंने बाह्य सम्पत्तिसे इतनी घृणा दिखाई है। किन्तु मैं यह नहीं कह सकता कि इन्होंने ही असली और यथार्थ मार्गका अवलंबन किया। शाक्यसिंहने यह शिक्षा दी कि इस लोकके व्यापारोंमें मन लगाना ही अनिष्टका कारण है—मनुष्य सर्वत्यागी होकर निर्वाणकी कामना करे। भारतमें इस शिक्षाका फल विषमय हुआ है। मनुष्य-जीवनके उद्देश्यके सम्बन्धमें इस प्रकार और भी अनेक मुनि- वृत्ति महापुरुषोंकी भ्रान्त धारणा होनेके कारण वे ऐहिक सम्पत्तिके प्रति विरक्त होकर भी समाजका इष्ट करने में विशेष कृतकार्य नहीं हो सके। साधारणतः संन्यासी आदि सर्वदेशीय वैरागी-संप्रदायको उदाहरणके तौरपर निर्दिष्ट करनेसे ही यह बात अच्छी तरह प्रमाणित हो जायगी।

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* यह स्वीकार करता हूँ कि किसी परिमाणमें धनकी आकांक्षा समाजके लिए मंगलकर है। धनकी आकांक्षामात्रको ही मैं अमंगलजनक नहीं समझता; किन्तु धन मनुष्य-जीवनका उद्देश्य होना ही अमंगलकर है।

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बं. नि.—३