बगुला के पंख 'तो तुम कहो तो मैं साथ चलूं ।' 'नहीं।' 'तो वादा करो, आवश्यकता होने पर तुम मुझे बुला लोगी।' 'मैं क्या कहूं, मेरा मन बहुत अधीर हो रहा है।' 'जव तक मैं ज़िन्दा हूं, तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए।' जुगनू फिर उसे आलिंगनपाश में लेने को आगे बढ़ा, पर उसी समय जीने पर किसीके आने की आहट मिली। दोनों सावधान हो बैठे । शोभाराम और डाक्टर खन्ना दोनों ही थे। डाक्टर खन्ना ने कहा, 'अरे, मुंशी हैं, नमस्कार भई। बड़ी उम्र है तुम्हारी। हम लोग तुम्हारी ही चर्चा करते आ रहे थे ।' 'यह तो आपकी बड़ी कृपा है । कहिए, आपका मिज़ाज तो अच्छा है ? घर में और सब तो ठीक हैं ?' 'सब ठीकठाक है भाई, लेकिन शारदा तुम्हें बहुत याद करती है । उस दिन दावत के बाद फिर आए ही नहीं।' 'क्या कहूं । भाई साहब ने मुझे ऐसी गाड़ी में जोत दिया है कि बोझा खींचते-खींचते कचूमर निकला जा रहा है। उसने हंसते हुए कहा । जुगनू का हास्य' बड़ा मधुर था। कुछ क्षण पूर्व वह जिस प्रेम की दुनिया में विचर रहा था, उसकी मस्ती का बहुत-सा नशा उस हास्य में था। शोभाराम ने उदासीनता से बैठते हुए कहा, 'क्या बहुत देर हुई मुंशी ?' 'नहीं, बस दो-चार ही मिनट हुए । मैंने तो सुबह सुना कि तबियत एकाएक फिर खराब हो गई। 'अब तो डाक्टरों का कहना है कि पहाड़ पर जाना अत्यन्त आवश्यक है।' डाक्टर खन्ना ने कहा, 'भई, पहले तन्दुरुस्ती और बाद में और कुछ। मसूरी में अपनी कोठी है ही, तरवुद का काम नहीं । बस, कल ही चले जायो ।' 'सोचता हूं, सालाना चुनाव हो जाए तो जाऊं।' 'गोली मारो चुनावों पर भाई, जान है तो जहान है,' डाक्टर खन्ना ने ज़ोर देते हुए कहा। जुगनू ने कहा, 'भाई साहब, डाक्टर साहब ठीक कह रहे हैं। भाभी भी बहुत चिन्तित हैं। पहाड़ की आबोहवा और काम-काज से बेफिक्री-ये दो बातें
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