साथ मोटरों, स्कूटरों, मोटर-रिक्शाओं की दौड़-धूप ऐसी थी कि जिसका अन्त ही न था। वह बड़ी देर तक चुपचाप खड़ा दिल्ली की चहल-पहल देखता रहा । वह सोच रहा था कि वह क्या करे, कहां जाए ? पेट में उसके चूहे कूद रहे थे और भूख तेज़ होती जा रही थी। पर वह यह भी जानता था कि ये पैसे तो आज ही पेट में चले जाएंगे, कल वह क्या खाएगा। सबसे बड़ा सवाल यह था कि वह अब क्या कहकर लोगों को अपना परिचय दे । मुश्ताक अहमद बनने से तो अब कोई लाभ ही नहीं है । मुसलमान सब चले गए पाकिस्तान । उनके साथ उनका रुबाब, दबदबा, धौंस और शोखी भी चली गई । जो मुसलमान रह गए हैं, वे अब अपने को अधीन प्रजा के रूप में देखते हैं। उसकी वे किसी प्रकार की सहायता करेंगे, इसकी उसे कोई प्राशा न थी। इसके अतिरिक्त हिन्दू रहने ही में भलाई थी। उसे कहीं खड़े होने की ठौर मिल सकती है। परन्तु हिन्दू होते ही वह भंगी भी हो जाएगा । यही बात याद कर उसका मन घृणा से भर गया। बहुत बार उसका मन हुआ था कि वह ईसाई हो जाए, पर देशी ईसाइयों की दुरवस्था वह देख चुका था। इसके अतिरिक्त मुसलमानों की तरह अब अंग्रेजों की जोत भी तो वुझ गई । देशी ईसाइयों का भला भारत में क्या स्थान हो सकता है। खूब सोच-समझकर उसने मुंशी जगनपरसाद ही रहने का निर्णय किया। मुंशी शब्द पर उसने जोर दिया। वह धीरे-धीरे कम्पनी बाग की ओर चला। बाग का उसने एक चक्कर लगाया । फिर वह लालकिले की ओर गया। वहां आदमियों का ठठ जुड़ता जा रहा था । बेतहाशा भीड़ थी। भीड़ को चीरता हुआ वह दरियागंज की ओर बढ़ा, जहां झांकियां आने वाली थीं। अभी दस ही बजे थे और सैनिक टैंक और दल आने प्रारम्भ हो गए थे। वह एक ओर खड़ा होकर यह सब देखता रहा । परेड खत्म होते- होते बारह बज गए। भीड़ अब घटने लगी थी। वह भी जामा मस्जिद की ओर बढ़ा । भूख उसे अब बेचैन कर रही थी। हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न एक ओर रखकर वह अब किसी सस्ते मुसलमानी रेस्टोरेन्ट में सालन-रोटी खाना चाह रहा था। इसी समय उसकी नज़र भीड़ में आते हुए एक व्यक्ति पर पड़ी। उसे देखते हा उसका चेहरा खिल उठा। उसने लपककर पुकारा, "भाई साहब ! भाई साहब !'
जिस पुरुष को 'भाई साहब' कहकर पुकारा गया था, वह भी कोई तीस-