१२४ बगुला के पंख 'तो मालूम होता है, तुम दोनों की खूब घुटती है । तुम्हें वह खूब प्यार करती है।' 'मोह, प्यार की क्या कहते हैं आप, घर पहुंचने में एक मिनट की देर होती है तो रोते-रोते अांखें सूज जाती हैं उसकी ।' राधेमोहन चाय की चुस्की के साथ बढ़-बढ़कर अपनी स्त्री के रूप-गुण की तारीफ करता जाता था, और जुगनू उसकी मूर्खतापूर्ण उत्तेजक बातों से मन ही मन' एक नई अभिलाषा से सुलग रहा था। उसने उठते हुए कहा, 'कुछ गाना- ऊना भी जानते हो !' 'मैं तो नहीं, पर मेरी स्त्री खूब गाती है। बहुत ही प्यारा गला है । हारमोनियम भी बजा लेती है।' 'तो भई, मुबारकबादी देता हूं, ऐसी गुणवती सुन्दरी बीवी मिलने के लिए । किसी दिन' सुनूंगा आकर उनका संगीत ।' 'लेकिन कविता आपको भी सुनानी पड़ेगी।' 'खैर, देखा जाएगा । देखो, वह सामने टैक्सी जा रही है, रोको उसे ।' राधेमोहन दौड़कर टैक्सी ले आया । जुगनू ने कहा, 'मैं तो अब ज़रा नई दिल्ली एक काम से जाऊंगा। कहो, तुम्हें कहां छोड़ दूं ?' 'कष्ट मत कीजिए । मैं चला जाऊंगा । लेकिन आप कब आ रहे हैं मेरे घर? इसी इतवार को आइए न ।' 'इतवार को नहीं, शनिवार की शाम को ।' 'बहुत ठीक । मैं आपको आफिस से ही ले लूंगा। चार बजे मुझे छुट्टी मिल जाती है। मैं ठीक साढ़े चार बजे आ जाऊंगा।' 'अच्छी बात है, नमस्कार ।' जुगनू टैक्सी में बैठ गया। राधेमोहन के गधेपन पर वह मन ही मन हंस रहा था। और राधेमोहन जैसे कृतकृत्य होकर जाती हुई टैक्सी को खड़ा देख रहा था। ।
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