१२६ बगुला के पंख । दोनों बहुत अधिक फायदा है, जिसे भाग्य उठाकर आसमान में उड़ाए लिए जा रहा था। वह हज़ारों उसकी जेब में डालता था और हजारों अपनी जेब दोनों के लिए काम के व्यक्ति प्रमाणित थे । और अब दोनों का अटूट सम्बन्ध दिन पर दिन दृढ़ होता जाता था । दोनों ही एक प्रकार से नीच पुरुष थे-एक था जन्मजात भंगी, अशिक्षित, आवारा और दुश्चरित्र, और दूसरा था पूरा काइयां, रंडी का दलाल, एक रज़ील-पेशा धूर्त आदमी । परन्तु मानसिक तुच्छता न जुगनू में थी न नवाब में । इसीसे दोनों की प्रगाढ़ मित्रता अब अटूट विश्वास में परिणत हो गई थी। जुगनू के जीवन में अब भी कठिनाइयां बहुत थीं। परन्तु वह एक ऐसी वस्तु को लक्ष्य बनाए हुए था, जिसे शायद वह खुद भी ठीक-ठीक नहीं जानता था । पर कोई अज्ञात शक्ति उसे प्रेरित करती रहती थी। यथार्थ की अपेक्षा वह कल्पना-जगत् में वहुधा विचरण करता रहता था । और कल्पना ने उसकी अन्त- रात्मा में आनन्द के अनेक स्रोत खोल दिए थे । परन्तु वह प्रत्येक काम अपने भयंकर व्यक्तित्व की सम्पूर्ण शक्ति से करता, उसकी अपनी उत्तेजना उसे गर्माती और प्रेरित करती रहती । वह जो कुछ भी करता, उसके परिणामों की एक परिपूर्ण मूर्ति अपने मस्तिष्क में पहले ही से बना लेता । इसलिए काम में ज़रा- सी भी त्रुटि वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था। परिस्थितियों ने उसे ढीठ, कठोर, निर्मम और साहसी बना दिया था। और अब वह इस बात ज़रा भी परवाह नहीं करता था कि उसके बारे में दूसरों की क्या राय है। वह अब व्यक्ति की राय को दो कौड़ी का भी महत्त्व न देता था। फिर बहुतों की राय की उसे क्या परवाह थी । महत्त्वाकांक्षा अब उसकी अपरिसीम हो रही थी। उसे जो कुछ भी मिलता, उससे उसे संतोष नहीं होता था । आकांक्षाओं के जो महल उसके मस्तिष्क में बनते जा रहे थे उनमें अभाव ही अभाव था। वह सदा यही सोचता -अभी और, अभी और। था-
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