१२८ बगुला के पंख 'इसलिए कि आप अपने को कवि कहते हैं।' 'आप शायद यह स्वीकार नहीं करते ।' 'यदि कहूं कि आपका अनुमान सच है, तो ?' 'तो आप अपने घर, और मैं अपने घर, बस ।' 'यानी आप किसी व्यक्ति की राय की परवाह नहीं करते।' 'मैं न व्यक्ति की परवाह करता हूं न समाज की !' 'अर्थात् आप सबके मुकाबिले धांधलेबाज़ी करते हैं।' 'पाप मेरा अपमान कर रहे हैं, परशुरामजी।' 'मैं आपको सचेत कर रहा हूं जगनप्रसादजी।' 'मेरा नाम मुंशी जगनपरसाद है ।' 'मुंशी नाम नहीं होता । नाम की पूंछ होता है । नाम तो आपका जगन- प्रसाद ही है।' 'मेरा नाम मुंशी जगनपरसाद है ।' जुगनू ने क्रुद्ध होकर कहा । परशुराम ने हंसकर कहा, 'आपके पिता-माता तो शायद आपको जुगनू कह- कर पुकारते होंगे।' जुगनू का रक्त ठण्डा पड़ गया। मन के भीतर का चोर कांप गया। क्षण भर उसने परशुराम की ओर घूरकर देखा, फिर शंकित स्वर में कहा, 'आपका मतलब ?' 'मतलब की बात जाने दीजिए । आपको मुंशी कहलाना यदि इतना अधिक पसन्द है तो मेरा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है । मुंशी कहने में मेरी ज़बान नहीं घिस जाएगी। खैर, तो मुंशीजी, आप जो कविता करते हैं, तो उसके विषय में आप क्या सोचते हैं ? 'मैं तो कुछ नहीं सोचता । जो देखता हूं वही कहता हूं।' 'परन्तु आप जो देखते-सुनते हैं, वही क्या सब ठीक होता है ?' 'यह मैं क्या जानूं ?' 'तो आप जिस बात को जानते नहीं, उसे दूसरों से कहते क्यों हैं ?' जुगनू को गुस्सा आ गया । वास्तव में अब वह निरीह मुंशी न था, म्युनिसिपल चेअर- मैन था। उसने कहा- 'आप जो जानते-बूझते हैं, वह सब ठीक होता है ?'
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