पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१३४

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१३२ बगुला के पंख लेकिन मैंने उससे कहा है कि तुम उसकी कविता पसन्द करती हो।' 'मैं कविता-अविता क्या जानूं !' 'अरी मूर्ख, मैंने तो तेरी तारीफ ही की थी। अब तू यहां पर्दे में बैठी रहेगी तो मेरी भद्द न होगा ?' 'मैं पराये मर्द के सामने क्यों जाऊं ? भद्द होगी तो हो जाए।' 'वह क्या बाघ है, तुझे खा जाएगा ?' 'बाघ हो या गीदड़ । मैं नहीं जाती, बस ।' 'कहीं मैं तुझे धुनकर न रख दूं ! सुनती नहीं है ?' 'मारो फिर। वे भी देख लें तुम्हारी बहादुरी।' 'मैं कहता हूं-ज़रा कपड़े बदलकर आ जाओ। आजकल तो सब पढ़ी- लिखी स्त्रियां लोगों से मिलती-जुलती हैं । सभा-सोसाइटी में जाती हैं।' 'जाती होंगी। मैं नहीं जाती।' 'मैंने उससे तुम्हारी कितनी तारीफ की थी। सोचो तो कितनी किरकिरी होगी?' 'अच्छी जबर्दस्ती है। मुझे तो उसके सामने आते शर्म लगती है।' 'वह तो बहुत भला आदमी है । बड़े-बड़े लोग उससे मिलने आते हैं।' 'होगा । मुझे तो वह कोई लफंगा-सा लगता है।' 'मैं तेरे हाथ जोड़ता हूं। बस जरा देर को चली चल । वह आसमानी साड़ी पहन लेना । और बालों को ज़रा ठीक कर लेना।' गोमती चुप हो गई। पर गुस्से से उसके होंठ फूल रहे थे। कुछ रुककर राधेमोहन ने कहा, 'आती हो ?' 'मेरी जान मत खाओ। आते हैं, ज़रा कपड़े तो बदल लेने दो-अच्छी मुसीबत है । मुस्टंडों को खाना बनाकर खिलाओ फिर सामने आकर हाज़िरी भी दो।' राधेमोहन कृतकृत्य हो गया। वह अपनी सुन्दरी नवोढ़ा पत्नी की झांकी जुगनू को कराने के लिए आतुर हो रहा था। जब वह बाहर बैठक में आया तो जुगनू ने कहा, 'अच्छा, अब चलूंगा । भाभी साहिबा को बहुत-बहुत धन्यवाद देना। 'धन्यवाद अब आप ही दे-दिला लीजिए-वह पा रही है।'