पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१४१

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बगुला के पंख १३६ गिलौरी । और दो उंगलियों में नफासत से पकड़ी हुई सिगरेट । जुगनू को देखते ही तपाक से खड़े हो गए मुस्कराकर । एक अजब अन्दाज़ से आदाबर्ज़ कहा । नवाब ने परिचय दिया। 'मेरे दोस्त हैं, मौलवी लियाकत- हुसेन, कल ही लखनऊ से आए हैं । आपसे मिलाने को ले आया। बहुत कमाल के शायर हैं । मसिया कहने में इस वक्त इनकी जोड़ का दूसरा नहीं है । गजल और रुबाई कहने में भी कमाल हासिल है । यों अरबी-फारसी में भी प्रालिम हैं।' 'लेकिन आपका एक अदना खादिम हूं। वहुत तारीफ सुन चुका हूं- नवाव साहब से । इज़ाजत हो तो अपना मतलब अर्ज करूं।' जुगनू की जगह कोई समझदार आदमी होता तो कहता आलिम या शायर क्या कोई भांड़ मालूम होता है । पर जुगनू ने कहा, 'फर्माइए, क्या हुक्म है ?' 'अमा हुक्म या अर्जदाश्त जा कुछ है, वह मैं बताए देता हूं। परसों यहां आल इण्डिया मुशायरा है । दूर-दूर के शायर आए हैं। अाप भी लखनऊ से उसी काम के लिए तशरीफ लाए हैं । अब सबकी ओर से आपको दावत देने आए हैं । मुशायरे की सदारत आप ही को करनी होगी।' नवाब ने बीच ही में अपने खास लहजे में कहा । 'लेकिन मैं तो अपने को इस काबिल नहीं समझता।' 'हज़रत बज्मे-अदब की सदारत हर किसी नाकिस का काम नहीं। यह तो आप ही जैसे पहुंचे हुए औलिया के हिस्से की चीज़ है । हूं ऊ ।' मौलाना ने मुस्कराकर एक अजब अंदाज़ से हूं ऊं कहा । 'मुझे औलिया कौन कहता है ?' 'खुदाए मैं कहता हूं। झूठ हो तो शैतान' मुझे दोज़ख में ले जाए।' 'यह मुंशी, मंजूर कर लो। मौलाना की बात रख लो। ये तो मुझे सिफारिश के लिए ही पकड़ लाए हैं।' 'लेकिन मौलाना, मैं तो शायरी का अलिफ-बे भी नहीं जानता।' 'खुदा के लिए बनाइएगा नहीं, बन्दा भी लखनऊ का पानी पिए है। आप क्या उन डींग हांकनेवालों को तरजीह देते हैं, जिनकी अक्ल दरिया के गंदले पानी की तरह है, जो हमेशा नीचे की ओर ही बहता है, ऊपर उठकर जिन्दगी की बारीकियों की बात वे सोच ही नहीं सकते।' जुगनू मौलाना की बताई हुई ज़िन्दगी की बारीकी की बातें कुछ भी नहीं