पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१७५

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बगुला के पंख १७३ पर वह नहीं जानती थी कि वह क्या करने जा रही है। इसी समय' मालती ने आकर कहा, 'अरे वाह, तू तो बेफिक्र यहां हाथ-पैर फैलाकर बैठी है।' 'तो क्या अपना गला काट लूं ?' 'चल भई, सब तैयार हैं । मैडम ने मुझे भेजा है।' 'चल, मैं रैडी हूं।' मालती ने एक बार सिर से पैर तक शारदा को देखा, आग की तरह लाल नाइलोन' की साड़ी, जिसपर खूव चौड़ा सुनहरा काम, अांचल में झलझल झलकते हुए इन्द्रधनुष के रंग का काम, अंग पर कंकण, भुजबन्द आदि पुराने ढंग के गहने, उंगलियों में जड़ाऊ अंगूठियां, अांखों में काजल की लम्बी रेखा-देखकर मालती ने ठोड़ी पर उंगली रखकर कहा, 'तू तो आज राधा बनी है शारदा ! पर तेरा मुंह ?' 'क्यों, मुंह से तुझे क्या लेना-देना है ?' 'मुझे नहीं, पर बाहर जो हज़ारों इस मुख को देखने की लालसा मन में संजोए बैठे हैं ?' 'तो मुंह को क्या हुआ है ? 'एकदम रूखा-सूखा, जैसे वहां एक बूंद रक्त है ही नहीं, तू क्या वियोग- शृंगार का नृत्य करने जा रही है ?' 'तो अब इस वक्त किसका मुंह लाऊं, उन सबको दिखाने के लिए। नहीं तो नृत्य' मुल्तवी रखा जाए।' 'मैडम जहर खाकर मर जाएगी, तो यह ब्रह्महत्या किसे लगेगी?' 'क्यों ? क्या मैडम ब्राह्मण है ?' 'कर्म से तो ब्राह्मण ही है। देखती नहीं हमारी गुरु है। विद्या-दान करती है।' 'दान कहां करती है री, बेचती है।' और बात नहीं हुई। इसी समय घंटी बज उठी । शारदा उठकर धीरे-धीरे स्टेज पर पहुंची। परदा नीचे से फटकर इधर- उधर हट गया-सामने का दृश्य भावविमोहित कर रहा था। जमुना का कूल- कदम्ब की फूलों से लदी हुई डाल-धीरे-धीरे नूपरों की झंकार से सभा-भवन में सन्नाटा छा गया। दूर कहीं बंसी बज उठी। राधा का विप्रलम्भ नृत्य