बगुला के पंख २३७ 1 योग्यतम आदमी निरुपाय बैठे थे। उन्हें धकेलकर पीछे फेंक दिया गया था। हिन्दू समझते थे यह हमारा राज्य नहीं है, जनसंघ उनका प्रतिनिधित्व करता था। और उसके सदस्य विरोधी बैंचों पर सरकार की हरकत पर अडंगा लगाने पर आमादा बैठे थे। मुसलमान समझ रहे थे यह हमारा देश ही नहीं है। सिख, पारसी, यहूदी अपने अल्पसंख्यक होने की दुहाई देकर बात-बात में विशेषा- धिकार की हायतोबा कर रहे थे। कांग्रेस की सारी प्रतिष्ठा और सारी साख का दिवाला निकल चुका था। उसका तप और कष्ट से संचित धवल यश मैला और गंदा हो चुका था। खद्दर की पोशाक हास्यास्पद और ढोंग समझी जा रही थी। जनता में कांग्रेस-विरोधी तत्त्व पनपते जा रहे थे। अवसरवादी कांग्रेस में घुसकर ऊंची कुर्सियों पर जमते जा रहे थे। पुराने तपे हुए कर्मठ देशभक्त निराश और क्षुब्ध या तो अब सरकारी बैंचों का विरोध करते थे या अपनी अलग ढफली, अलग राग अलाप रहे थे। राजसत्ता के विरुद्ध जो असंतोष और अशांति तथा अविश्वास अंग्रेज़ी राज्य में था, वही बल्कि उससे भी कहीं अधिक आज इस स्वदेशी राज्य में उत्पन्न होता जा रहा था। और इसका कारण स्पष्ट था कि यह वास्तव में सही रूप में जनता का राज्य न था। जनता अब भी अपने को राज्यसत्ता से पीड़ित प्रजा समझती थी। जिन गुटों के प्रतिनिधि इस तथाकथित गणतन्त्र को चला रहे थे, उनमें न विचारों में, न दृष्टिकोण में एकता थी, न परस्पर प्रेम और विश्वास की भावना ही थी, संदेह और अविश्वास एक दूसरे के प्रति बना हुआ था। प्रत्येक गुट अपने गुट की छोटी से छोटी स्वार्थ-कामना को देशहित से बड़ा समझ रहा था, उसकी पूरी सिद्धि चाह रहा था और दूसरों की बड़ी से बड़ी तथा युक्ति- युक्त आवश्यकता को भी तुच्छ समझता था। सबसे बड़ी बाधा थी कम्युनिस्ट गुट की, जो प्रत्येक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को सोवियत दृष्टिकोण से देखता था। वह देश और सरकार के ऐसे किसी भी उचित- अनुचित कार्य का, जो कम्युनिस्ट क्रिया-कलापों के विपरीत हो, विरोध करता था, और यह गुट धीरे-धीरे देश की सबसे बड़ी राजनीतिक और आर्थिक बाधा बनता जा रहा था। संक्षेप में इस भारतीय गणतन्त्र की दशा ठीक रेलगाड़ी के उस तीसरे दर्जे के डिब्बे के समान थी जिसमें सुविधाएं कम और असुविधाएं अधिक थीं ; जहां प्रत्येक आदमी अपने ही आराम, अपनी ही सुख-सुविधा का 3
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