बगुला के पंख २३ भला कौन से की थी। उसे लखनऊ में अनेक मुशायरों में सम्मिलित होने के अवसर मिले थे। वहीं उसने तुकबन्दियां करनी प्रारम्भ कर दी थीं। उसकी कई गज़लों को उसके लखनऊ के दोस्त और प्रसिद्ध शायर हसरत लखनवी ने एक प्रकार से पूरी की पूरी बदलकर उनमें जान ही डाल दी थी। वही गज़लें उसने पढ़ी और असल बात यह कि इस मजलिस में नगर के प्रतिष्ठित कनरसिया तो कई थे, पर अच्छा कवि कोई न था। दो-तीन साधारण शायर ही थे। इससे जुगनू की जोत जम गई। उसकी खूब प्रशंसा हुई। सबसे ज्यादा प्रसन्न हो रहे थे जोगेन्द्रसिंह ग्रन्थी। दिल्ली के फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट थे, कविता के शौकीन थे । समझते थे-स्वयं भी कुछ कह लेते थे, इसीसे वे सबसे आगे अपने कविता-ज्ञान का ढिंढोरा पीटने को सबसे ऊंची आवाज़ में वाह-वाह कर रहे थे । मजिस्ट्रेट थे उनकी हास्यास्पद चेष्टा पर हंस सकता था। फिर इस मजलिस में ऐसा गुणी- पारखी ही कौन बैठा था । बस जुगनू की धाक बंध गई । उसकी खूब वाहवाही हुई। मुशायरे के अन्त में सबने तपाक से उससे हाथ मिलाए । अपने-अपने घर आने के निमन्त्रण दिए । डाक्टर खन्ना ने भी उसकी खातिर-तवाज़ा में कोई कोर-कसर न रखी। जुगनू ने मुस्कराकर सबका आदर साभार ग्रहण किया। अब दिल्ली के सम्भ्रान्त नागरिकों में उसका परिचय ही नहीं, प्रवेश भी हो गया। सबसे ज़्यादा उसपर रीझ उठी मिस शारदा, डाक्टर खन्ना की पुत्री । वह हंसते-हंसते आकर जुगनू के पास बैठ गई । अपनी आटोग्राफ कापी उसके आगे बढ़ाकर वह हंसती हुई उसकी ओर देखने लगी। जुगनू ने कभी किसीको पाटोग्राफ नहीं दिया था । वह शारदा का कुछ भी अभिप्राय' न समझ उस छोटी-सी कापी को हाथ में लेकर उलट-पुलटकर देखने लगा। शारदा ने हंसते हुए कहा, 'पाटोग्राफ दीजिए।' 'ऐं'-कहकर जुगनू भी हंसने लगा। शारदा ने अपना पैन खोलकर उसके हाथ में दे दिया। आटोग्राफ का मतलब जुगनू नहीं समझता था । उसने कहा, 'क्या लिखू ?' 'कुछ भी।'
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