पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२५३

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बगुला के पंख २५१ उसका परिचय कराया । अन्त में उसने कहा, 'मुंशी साहब, अब हम-आप एक दूसरे को ठीक समझ गए हैं । आप अच्छी तरह जान गए हैं कि मेरे साथ मित्रता रखना आपके लिए घाटे का सौदा नहीं हो सकता।' 'पर यही बात तो मैं भी कह सकता हूं।' 'ज़रूर कह सकते हैं । पर आपका मेरे साथ कोई स्थायी समझौता हो जाए तो क्या आप उसे नापसंद करेंगे ?' 'आप ज़रा स्पष्ट कहिए ।' 'स्पष्ट ही कहना अच्छा है । क्या आप मिनिस्टर बनना चाहते हैं ?' 'बुरा क्या है !' 'तो जो आदमी आपको उस कुर्सी पर बिठाएगा उसके साथ आप कैसा सुलूक करेंगे ?' 'दोस्ती का।' 'तो ज्योतिषीजी, आप बताइए कि इनकी दोस्ती उस आदमी से कायम रहेगी या नहीं जो इन्हें मिनिस्टर की कुर्सी पर बिठाएगा ?' ज्योतिषीजी ने स्लेट पर लकीरें खींचनी शुरू की। बहुत देर तक वे भांति-भांति का मुंह बनाते रहे । अन्त में कहा- 'रहेगी, निभेगी, परन्तु एक बात है।' 'कौन बात?' 'यह कि भूलकर भी दोनों के बीच कोई औरत नहीं आनी चाहिए। औरत आई कि दोस्ती टूटी।' 'औरत सुसरी का बिजनेस में क्या काम है ! तो मुंशीजी, आपके लिए वाणिज्यमन्त्री की कुर्सी तैयार है । मैंने उसे पांच लाख रुपयों में खरीदा है। एक ही हफ्ते में आपको सरकारी तौर पर इसकी सूचना मिल जाएगी। अब पाप कौल हारिए कि आप कभी मुझे दगा न देंगे । सदा मेरे काम को प्रमुखता देंगे। मैं भी आपको करोड़पति बना देने का वादा करता हूं।' 'वादा नहीं लालाजी, नकद का जवाब नकद होना चाहिए।' 'नकद ही लीजिए मुंशीजी । मेरी दोनों ही कम्पनियों में आप डाइरेक्टर हैं ही । अब आप कोई वोनस चाहें तो मैं वह भी देने को राजी हूं।' 'बोनस नहीं लालाजी, मुझे आप हर माह की पहली तारीख को एक ब्लैक