२६४ बगुला के पंख जुलूस के साथ थे । डाक्टर खन्ना की कोठी बिजली के प्रकाश से जगमग हो रही थी। बैण्ड बज रहा था । शहनाई अलाप ले रही थी। नगर के सभी गण्यमान्य स्त्री-पुरुष उनकी कोठी पर सुशोभित थे। डाक्टर खन्ना सपत्नीक हंस-हंसकर नम्रतापूर्वक आगन्तुकों का स्वागत कर रहे थे। बारात खन्ना साहब के द्वार पर पहुंची । जुगनू कमखाब की शेरवानी डाटे फूलों से सुसज्जित मोटर में दूल्हा बना बैठा था। उसके सामने नवाब लखनवी दुपल्ली टोपी और चिकन का कुर्ता पहने बैठा था। लाला फकीरचन्द बारात के कभी आगे, कभी पीछे बन्दोबस्त करते फिर रहे थे। लोग खा-पी रहे थे । गप- शप कर रहे थे। वर के द्वाराचार के लिए तैयारियां हो रही थीं कि अकस्मात् ही एक ऊंची आवाज़ उठी-'भैया !' किसीने सुनी, किसीने नहीं सुनी। सड़क के एक किनारे दो-तीन भंगी टोकरा लिए बैठे जूठन एकत्र कर रहे थे। उन्हींमें से एक तरुण ने जुगनू को ये शब्द कहे । जुगनू ने शब्द सुने और उसका खून ठण्डा हो गया। नवाब ने भी सुना, उस तरुण की ओर आंख उठाकर देखा और फिर जुगनू के चेहरे को देखा तो जुगनू के चेहरे पर एक बूंद भी रक्त न था। और भी कुछ आदमियों ने सुना, परन्तु किसीने कुछ समझा, कुछ नहीं समझा । परशुराम दैवदुर्विपाक से वहीं खड़ा था। वह तरुण दुबारा पुकारने ही वाला था, संभवतः वह मोटर की ओर आने का भी उपक्रम कर रहा था, कि परशुराम ने उसे डांट दिया, और उसे अपने साथ एकान्त स्थान पर ले गया। वहां जाकर उसने उससे बात की । परशुराम ने कहा, 'तू कौन है ?' 'मैं आपका मेहतर हूं।' 'कहां का रहनेवाला है ?' 'मुरादाबाद जिले का रहनेवाला हूं। यहां मेरी ससुराल है । यह घर मेरी ससुरालवालों का है। उनके साथ मैं भी आया हूं। हम खाना लेने आए हैं ।' 'तेरा नाम क्या है ?' 'मेरा नाम घसीटा है।' 'तूने किसे पुकारा ?' 'जुगनू भैया को।
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