बगुला के पंख २५ मेरे यहां शाम को । तुम भी चाय वहीं पीना और आप भी मल्होत्रा साहब ।' मल्होत्रा ने हंसते हुए कहा, 'लेकिन एक शर्त पर कि दालमोठ घंटेवाले हलवाई की हो।' 'हां, हां, वही लीजिए । और आप भी अग्रवाल साहब, देखिए मैं कोई उज्र न सुनूंगा।' सेठी ने इसी समय हंसते हुए कहा, 'भई, देखना मुझे न्योता न दे बैठना, मुझे उस वक्त बिलकुल फुर्सत नहीं है।' 'तो आप उस वक्त से आधा घण्टा पेश्तर आइए।' इसपर एक फर्माइशी कहकहा पड़ा । खाना प्रारम्भ हुआ । जुगनू चुपचाप खा रहा था। उसे एक सूत्र मिल गया था । उसकी जात कायस्थ है, श्रीवास्तव कायस्थ, वह बारम्बार इसी नाम को रट रहा था। जब सब रवाना होने लगें तो मजिस्ट्रेट ने अपनी कार की ओर बढ़ते हुए कहा, 'आपको मैं घर पर छोड़ता चलूंगा । आप शोभाराम के मकान पर ही ठहरे हैं न ?' 'जी हां । लेकिन 'अमां लेकिन क्या, आयो न, हां, आज शोभाराम नहीं आए। क्या बात है ? तबियत तो ठीक है उनकी ?' 'जी हां, लेकिन उन्हें एक ज़रूरी काम से कहीं जाना पड़ गया। इसीसे न आ सके ।' जुगनू आगे बढ़कर गाड़ी में आगे की सीट पर बैठ गया । जोगेन्द्रसिंह ने स्वयं ड्राइवर के स्थान पर बैठकर गाड़ी स्टार्ट कर दी। बरसात शुरू होते ही शोभाराम की तबियत ज़्यादा खराब हो गई । पेचिश ने संग्रहणी का रूप धारण कर लिया । और उसका सब खाना-पीना बंद करके छाछ पर तथा फलों के रस पर ही उसे रखा गया । आफिस जाना भी अब उसके लिए संभव न रहा । परन्तु इस अवसर पर जुगनू ने बड़ी तत्परता और
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