पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/३८

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बगुला के पंख 'यों ही कुछ तुकबन्दी है। शारदा ने वह कागज़ पुस्तक में रखते हुए कहा, 'तुम किस तरह गज़लें लिख लेते हो मुंशी, मुझे भी सिखा दो । मैं चाहती हूं, मैं भी गज़लें लिखू ।' 'यह तो बहुत मुश्किल है, मिस शारदा । तुम शायरी नहीं कर सकतीं।' 'क्यों नहीं कर सकती ? क्या मैं कूढ़-मगज़ हूं ?' 'नहीं, नहीं, यह बात नहीं ; हां, डाक्टर साहब क्या भीतर हैं ?' 'नहीं, वे विज़िट पर देहात गए हैं। उन्हें तो घर में बैठने की फुर्सत ही नहीं मिलती। आज ममी की तबियत खराब है, फिर भी पापा का पता ही नहीं। 'ममी को क्या हुआ ?' 'ज़रा हरारत है । कल देर तक जागती रहीं, बस जुकाम-हरारत हो गई। खैर, तुम शायरी की बात करो। मैं शायरी क्यों नहीं कर सकती ?' जुगनू ने ज़रा इधर-उधर करके कहा, 'शायरी करने के लिए इश्क की जरूरत होती है।' 'इश्क क्या होता है ?' 'मुहब्बत, मुहब्बत करनी पड़ती है।' 'मैं तो बहुत मुहब्बत करती हूं।' 'किससे मुहब्बत करती हो, भला बतानो तो।' 'ममी से, पापा से ।' 'और किसीसे नहीं ? 'तुमसे, टामी से ।' उसने अपने अलसेशियन' कुत्ते की गर्दन सहलाते हुए कहा। कुत्ते से अपनी तुलना करते सुन जुगनू तनिक लज्जित हुआ। कैसे वह इस भोली-भाली बालिका को इश्क का भेद समझाए। इतनी लताफत और तमीज़ जुगनू में न थी। उसने कहा, 'वह मुहब्बत नहीं, मिस शारदा ।' 'तब कैसी मुहब्बत? 'जिसे प्यार कहते हैं । समझती हो न ?' 'खूब समझती हूं।' जुगनू ने शारदा की आंखों में देखा । वहां स्वच्छ, निर्दोष दृष्टि देखकर उसने ज़रा दबी ज़बान से कहा, 'नहीं, तुम नहीं समझतीं।'