पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/३९

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बगुला के पंख ३७ 'खैर, तो तुम समझा दो।' 'देखो, गज़ल में इश्क की ही बातें होती हैं।' 'इश्क माने प्यार-मुहब्बत।' 'हां, लेकिन...' 'लेकिन क्या ? 'अभी तुम नहीं समझ सकतीं मिस शारदा। मैं कैसे कहूं ?' जुगनू का स्वर लड़खड़ाया। उसका सारा शरीर वासना से तप गया। उसका भाव-परिवर्तन देखकर शारदा ज़रा शंकित हो गई, डर भी गई। उसने कहा, 'तुम्हें क्या हो गया मुंशी ?' 'कुछ नहीं। कभी-कभी मेरी तबियत खराब हो जाती है। एक गिलास ठंडा पानी मंगा दो।' 'शिकंजवी न मंगाऊं ?' 'नहीं, बस ठंडा पानी। 'मैं ही ले आती हूं।' शारदा तेज़ी से चली गई। और जब वह पानी लेकर आई तब तक उसने अपने मन को संयत कर लिया था। परन्तु शारदा के मन' में न जाने कैसी एक भीति की भावना घर कर गई थी। उसने कहा, 'मुंशी, हमारे मास्टरजी बहुत अच्छे कवि हैं। बड़ी अच्छी कविता करते हैं, पर वे ये सब बातें नहीं बताते । मैं उनसे कविता करना सीख रही हूं। यह देखो, उन्होंने मुझे छन्द-अलंकार की पुस्तक लाकर दी है। क्या तुमने यह पुस्तक पढ़ी है ?' उसने अपने हाथ की पुस्तक जुगनू के हाथ में थमा दी। जुगनू हिन्दी बहुत कम जानता था। उसने पुस्तक हाथ में लेकर कहा, 'हिन्दी की कविता और उर्दू की शायरी में बहुत अन्तर है, मिस शारदा ।' परन्तु इतनी ही बात कहते-कहते जुगनू का मुंह सूख गया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि इस भोली-भाली बालिका को इस प्रकार फुसलाकर कुत्सित वासना की सृष्टि करना कितना खराब है, कितना घृणास्पद है । उसका मन उसे धिक्कारने लगा। उसने कुछ घबराकर कहा, 'अच्छा, अब मैं जाऊंगा, मिस शारदा।' 'लो, तुम फिर भागने लगे मुंशी ? तुम्हारी बातें मुझे अच्छी लगती हैं । तुम नहीं रहते हो तो कुछ सूना-सूना-सा लगता है। आरो, मैं तुम्हें अपना