बगुला के पंख शारदा ज़िद पकड़ गई। उसने कहा, 'सुना दो मुंशी, सुनानी पड़ेगी।' परशुराम ने भी हठ की । लाचार मुंशी को एक गज़ल सुनानी पड़ी। शारदा शायद ठीक-ठीक उसका आशय नहीं समझी। उसका ध्यान मुंशी की लय और कण्ठ-स्वर पर था, वह तारीफ करना चाहती थी पर परशुराम की त्योरियों में बल पड़ रहे थे । गज़ल समाप्त होने से पहले ही परशुराम ने शारदा से कहा, 'शारदा, तुम ज़रा अपनी कविता की पुस्तक तो उठा लाओ।' शारदा के चली जाने पर मुंशी ने पढ़ना रोककर कहा, 'शायद आपको पसन्द नहीं आई। परशुराम ने कहा, 'माफ कीजिए मुंशीजी, आप एक शरीफ आदमी हैं, ऐसी हलकी और गन्दी गज़लें आपको लड़कियों के सामने नहीं पढ़नी चाहिएं। खयाल कीजिए, यदि खन्ना साहब के हाथ यह कागज़ पड़ जाए तो क्या नतीजा हो मुंशी ने खिसियाकर कहा, 'लेकिन जनाब, यह तो शायरी है ।' 'शायरी नहीं, बकवास है । आपको कब से यह शौक है ?' 'अब जब आपको पसन्द ही नहीं है तो इस बात को जाने ही दीजिए।' परशुराम कोई सख्त बात कहना चाहता था, पर इसी समय शारदा अपनी कविता की पुस्तक लेकर आ गई । परशुराम ने उससे कहा, 'तुम्हें यदि इस समय . फुर्सत हो तो थोड़ा पढ़ लो । मैं अभी एक घण्टा ठहर सकता हूं। कल मैं आ नहीं सका था।' 'लेकिन इस वक्त तो मैं मुंशी को अपनी तस्वीरें दिखा रही थी।' 'यह काम कुछ इतना ज़रूरी नहीं है । खोलो पुस्तक ।' वास्तव में परशुराम को जुगनू की वहां उपस्थिति अच्छी नहीं लग रही थी। एक ही दृष्टि में वह भांप गया था कि वह लोफर आदमी है । इसलिए वह उसकी ओर से एकदम अांखें फेरकर शारदा को काव्यशास्त्र पढ़ाने लगा। मुंशी ने ज़रा तैश में आकर कहा, 'तो मिस शारदा, अब मैं चला।' 'लेकिन मुंशी, कल शाम तुम ज़रूर आना।' 'कह नहीं सकता। आजकल फुर्सत कम मिलती है।' उसने शारदा को नमस्ते की और परशुराम की ओर बिना देखे ही चल दिया । कहा, 'आपने मास्टरजी, उन्हें नाराज़ कर दिया।' 'मुझे तो यह अच्छा आदमी नहीं प्रतीत होता।' शारदा ने
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