बगुला के पंख 'वह, वह तो बहुत अच्छा आदमी है।' 'वह कब से यहां आता-जाता है ?' 'थोड़े ही दिन से।' 'ठीक नहीं है, उसका आना-जाना बन्द करो।' 'क्यों?' परशुराम खुलकर और आगे कुछ कहना नहीं चाहते थे। उन्होंने बात टालने की नीयत से कहा, 'अभी पढ़ो, पीछे बताऊंगा।' और उन्होंने पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया । पर शारदा अनमनी रही। उस दिन पढ़ने में उसका मन नहीं लगा। परशुराम ने भी और अधिक मुंशी की चर्चा नहीं की। परशुराम एक सच्चरित्र युवक था। वह एक लम्बे कद का सशक्त शरीर का तरुण था । देखने में सुन्दर न था, परन्तु मेधावी और गम्भीर प्रकृति का था। एक ही दृष्टि में उसने जुगनू की कुत्सा देख ली थी और उसने इस सम्बन्ध में डाक्टर खन्ना को सावधान करने की ठान ली थी। जब परशुराम चले गए तो शारदा थोड़ी सुस्त होकर चुपचाप कुर्सी पर पड़ गई । वह मुंशी और परशुराम दोनों ही की बात सोच रही थी। मास्टरजी ने मुंशी को क्यों नहीं पसन्द किया । वह तो बहुत अच्छा आदमी है, परन्तु इसी समय उसे मुंशी की वह मुखाकृति ध्यान में आई जो इश्क की चर्चा करते हुए बन गई थी जिससे शारदा भीत और शंकित हो गई थी। एकाएक वह इश्क, मुहब्बत, प्यार इन तीन शब्दों के ताने-बाने में उलझ गई । परन्तु वह कुछ भी न समझ सकी । उसका मन गरम हो उठा । कविता की पुस्तक फेंक वह अपने कमरे में चली गई। ११ परशुराम की फटकार खाकर बेंत से पीटे कुत्ते की तरह दुम दबाकर जुगनू जो वहां से भागा तो उसे सीधा घर जाने का साहस न हुआ । उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसका सम्पूर्ण असंस्कृत भंगी-तत्त्व मूर्त हो उठा हो । एक सभ्य
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