पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/४३

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बगुला के पंख प्रतिष्ठित परिवार की कुमारिका के सामने जो उसने कुत्सा का प्रदर्शन किया और परशुराम ने जिस प्रकार उसकी भर्त्सना की उससे वह अत्यन्त हतप्रभ हो गया। वह सीधा परेड ग्राउण्ड के मैदान की ओर चला आया। अब दस बज रहे थे और सर्वत्र भीड़ छंट रही थी। आकाश में बदली घुमड़ रही थी। हवा बन्द थी तथा गरमी बेहद थी । इस दमघोंटू वातावरण में वह और भी अस्वस्थता अनुभव कर रहा था। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे उसका यह अभद्राचरण उसके अब तक के सारे ही विकास को मटियामेट कर चुका । उसका मन बार- बार उसे धिक्कार रहा था और वह अपने ही से कह रहा था कि वह किसी भी हालत में किसी भद्र परिवार में प्रविष्ट होने योग्य नहीं है । वह यह भी सोचकर पछता रहा था कि अव कदाचित् शारदा उससे मिलना पसन्द न करेगी। परशुराम का शारदा पर कैसा प्रभाव है ! परशुराम के समक्ष वह अपने को एक निकृष्टतम व्यक्ति अनुभव करने लगा था। वह सोच रहा था, उसने अच्छा ही किया कि वहां से भाग आया। परशुराम जैसे सिंह था और वह सिंह से बाल- बाल बचकर आया था। उसका मन बहुत खराब हो रहा था। वह औंधे मुंह एडवर्ड पार्क में जाकर घास पर पड़ रहा । धीरे-धीरे पश्चात्ताप और मनस्ताप ने उसे अभिभूत कर लिया। उसने भुनभुनाकर जैसे अपने आप ही से कहा, 'अबे ओ भंगी के बच्चे, प्रो कमीने, कामी कुत्ते, तू जो यह भद्र वेश धारण करके भद्र घरों में प्रविष्ट हो रहा है, यह तेरी धृष्टता है, अक्षम्य अपराध है ।' उसके सामने जैसे शारदा का कौमार्य से दमकता मुंह आ खड़ा हुआ । उस मुख की आंखों की ज्योति से उसे चकाचौंध लग रही थी। वही कौमार्य की आभा से जगमग मुख पूछ रहा था -'इश्क क्या होता है ?' छी ! छी ! जुगनू को ढूंढ़े उत्तर नहीं मिल रहा था। उसने दोनों हाथों से पकड़कर अपने बाल नोच डाले और दो-तीन बार धरती में अपना सिर दे मारा। उसने दांत पीसकर कहा, “भंगी के बच्चे, तू एक भले घर की कंवारी कन्या को इश्क सिखाने चला था ! कमीने, दोज़ख के कुत्ते !!' बहुत देर तक वह इसी उधेड़-बुन में लगा रहा। इस समय वह इस तरह छटपटा रहा था जैसे मानो उसे बेंतों से पीटा जा रहा हो। उसकी आंखें आंसुओं से तर थीं। उसकी अन्तःचेतना और बुद्धि-सत्ता इस समय उसके मनो- विकारों से द्वंद्व कर रही थी। उसने अपने ही आप से कहा, 'चल, चल,