82 बगुला के पंख यहां से दूर कहीं, वही खानसामागिरी की नौकरी कर, या भंगी का काम कर।' उसकी जेब में अब भी कुछ गन्दी गज़लें लिखी पड़ी थीं। उन्हें उसने ढूंढ़- ढूंढकर शारदा को सुनाने के लिए लिखा था। वह उन्हीं गन्दी गज़लों को सुनाकर उस अबोध बालिका के उत्सुक मन में वासना का बीज बोना चाहता था, परन्तु इस समय का जाग्रत विवेक उसे दूसरी ही दुनिया में ले गया था। उसने वे सब कागज़ जेब से निकालकर फाड़ डाले । उसने प्रतिज्ञा की कि वह अब कभी भी ऐसी गन्दी गज़लें और शेर नहीं पढ़ेगा। वह अपनी योग्यता बढ़ाएगा। वह अधिक सभ्य शिष्ट बनकर समाज में रहेगा। वह इस बात की भरपूर चेष्टा करेगा कि फिर कभी उसे परशुराम जैसे आदमियों से दुत्कार न खानी पड़े। वह उस समय तक पार्क में पड़ा रहा, जब तक पुलिस के सिपाही ने उसे पार्क से चले जाने को न कहा । अब बारह बज रहे थे । जब वह घर पहुंचा तो उसने चाहा कि चुपचाप आहट किए बिना अपने कमरे में जा सोए । परन्तु पद्मादेवी उसके लिए भोजन लिए बैठी थी। उसके कमरे में पैर रखते ही उसने आकर कहा, 'यह क्या ! बत्ती नहीं जलाई ?' उसने स्विच आन कर दिया, फिर कहा, 'बहुत देर कर दी आज, कई बार वे पूछ चुके हैं । खाना यहीं ले आऊं ?' 'आपने बड़ा कष्ट किया भाभी, मुझे आज बहुत देर हो गई परन्तु अब खाना नहीं खाऊंगा। बहुत थक गया हूं। बस सोऊंगा। खाना मैं खा चुका हूं।' 'तो थोड़ा दूध पी लो, गरम रखा है।' वह बिना ही उत्तर की प्रतीक्षा किए चली गई और दूध का गिलास ले आई। गिलास टेबल पर रखकर कहा, 'और कुछ तो नहीं चाहिए ? 'जी नहीं, भाई साहब की तबियत कैसी है ?' 'आज तो उनकी तवियत कुछ ठीक है । वे सो रहे हैं।' 'तो अब आप भी आराम कीजिए भाभी, बड़ा कष्ट आपको मेरे कारण हुआ। अब तक जुगनू नीची आंखें किए बात कर रहा था, अब उसने जो पद्मा
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