पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/५७

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बगुला के पंख तक की हीनभावना उसके मन' से दूर हो चुकी थी। आशा, उत्साह और अभिलाषाओं का उसके मन में ज्वार उमड़ रहा था। उसने बड़े वेमन और लापरवाही से मजिस्ट्रेट की बातों का जवाब दिया। जोगेन्द्र सिंह ने कहा, 'बड़े संजीदा हो रहे हो मुंशी । क्या शायरी का कोई नया मज़मून गांठ रहे हो ?' परन्तु जुगनू ने एक मुस्कराहट में इसका जवाब दिया। फिर हाथ का प्याला रखकर वह एकदम उठ खड़ा हुआ। उसने कहा, 'अब इजाज़त लूंगा, सरदार साहब ! रात भर की कैफियत मुझे भाभी साहबा को देनी होगी। नमस्ते।' सरदार साहब ने हंसते हुए हाथ मिलाकर कहा, 'भाभी से बहुत डरते हो भई, मजिस्ट्रेट की शहादत पेश कर देना । हम कह देंगे मुंशी रात भर हमें अपने शेर सुनाते रहे ।' जुगनू ने केवल 'शुक्रिया' कहा और चल दिया। १५ दिल्ली का वातावरण एकाएक सरगर्मी से भर गया। इसके दो कारण थे। एक दशहरे की आमद, दूसरे म्यूनिसिपैलिटी के चुनाव । बूढ़े और जवान, नये और पुराने सब तबके के आदमियों में एक नई स्फूर्ति भर गई । लाला फकीर- चन्द को भी जनसंघ ने अपने टिकट पर खड़ा किया। लड़ाई के दिनों में उन्होंने पचास हजार रुपया वारफण्ड में देकर कपड़े और लोहे के भारी परमिट लिए थे, जिसमें उन्होंने एक करोड़ रुपया कमाया था। परन्तु अब वे सब राजनीतिक झमेलों से दूर थे । चन्दा देना पसन्द नहीं करते थे । हकीकत यह थी कि गांठ का पैसा बेकार जाए यह वे नहीं चाहते थे। इस बार बिरादरीवालों ने उन्हें समझाया, और जनसंघियों ने उन्हें घेरा । मुहल्ले के वसन्तामल जनसंघी थे ; पर थे फाकेमस्त । वे लाला फकीरचन्द के पैसों से गाड़ी धकेलना चाहते थे । उन्होंने हिन्दूधर्म और गोवध का नारा बुलन्द करके लाला फकीरचन्द को जनसंघ के टिकट पर म्यूनिसिपल चुनाव में खड़ा कर दिया । वसन्तामल ने उनके