६० बगुला के पंख उसने और भी यत्न से जारी रखे थे । एक दैनिक पत्रों का अध्ययन, दूसरे दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में जाकर पुस्तकावलोकन' । कौन-कौन पुस्तकें उसे पढ़नी चाहिएं, इसके लिए वह शोभाराम से परामर्श लेता था। और हिन्दी के अध्ययन के लिए उसने पद्मादेवी से सहायता लेना आरम्भ कर दिया था। शोभाराम के आग्रह से पद्मा ने यह भार लिया था। वह उसके भाषण, वक्तव्य तैयार कर देती थी, उसके लेखों में सुधार कर देती थी। उसे इस प्रकार की सहायता देने में पद्मा को सुख मिलता था और पद्मादेवी से ये सब सहायताएं प्राप्त करके जुगनू को प्रसन्नता होती थी। इसमें एक बात यह भी थी कि एकान्त मिलन, वार्तालाप, विनोद और सहवास के अधिक अवसर मिलते जा रहे थे। दोनों परस्पर अब अधिक संकोचरहित और खुले हो गए थे। बहुधा वह कार्यव्यस्त रहता। शोभाराम प्रातःकाल जल्दी भोजन करके आफिस चले जाते । किन्तु जुगनू भोर ही निकल जाता और दोपहर में देर से आता। पद्मा उसके लिए गर्म खाना लिए बैठी रहती । जुगनू कहता, 'भाभी, मुझ नाचीज़ के लिए आप इतना कष्ट सहती हैं।' इसपर पद्मा मुस्कराकर रह जाती । कभी-कदाच एकाध विनोद-वाक्य' कह देती। अब उसमें बहुत-सी बातों में परिवर्तन हो चुका था, परन्तु जुगनू की प्रांखों में जो काम की भूख थी, वह वैसी ही थी। ज़रा भी उसे अवकाश मिलता, वह जाग उठती थी और पद्मा उसे ठीक पहचान गई थी। निस्सन्देह, पद्मा का रोगी पति उसकी काम-बुभुक्षा की तृप्ति नहीं कर पाता था। अपूर्ण अभिलाषा और विच्छिन्न उद्वेग कभी-कभी उसे अत्यन्त क्षुब्ध कर देते थे। उसी मनोवृत्ति में जुगनू के स्वस्थ सबल शरीर को निहारना, उसके साथ एकान्त में मिलना व वार्तालाप करना उसे अच्छा लगता था। इसमें उसे सुख मिलता, तृप्ति मिलती। वह उसके लिए भोजन लिए देर तक बैठी रहती। इसमें भी वह कभी ऊबती नहीं थी, परन्तु सच पूछा जाए तो वह जुगनू के प्रति जो धीरे-धीरे आकर्षित होती जा रही थी इसमें काम-तत्त्व का माध्यम है, यह बात साफ- साफ वह उतनी नहीं समझ पा रही थी, जितनी जुगनू । जुगनू शोभाराम और पद्मादेवी का उपकृत था। उनके अहसानों के बोझ से दबा हुअा था । शोभाराम उसे आश्रय न देते तो उसे खड़े होने का स्थान कहां था ? यह वह जानता था, भूला नहीं था और अब तो पद्मादेवी केवल यत्न से उसके आराम और भोजन