पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/६५

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बगुला के पंख 'लेकिन जुगनू इतना कहकर चुप हो गया। उसकी नज़र ज़मीन में गड़ गई। 'क्या सोच रहे हैं आप?' 'जी मैं ? मैं, मैं सोच रहा हूं कि अब मैं यहां से चला ही जाऊं और फिर कभी लौटकर न आऊं।' 'ऐसी खराब बात आप क्यों सोचते हैं भला ? क्या यहां आपको कोई तकलीफ है या मुझीसे कुछ चूक हो गई है कि नाराज़ हो उठे हैं आप ?' 'नहीं, नाराज़ मैं नहीं हूं।' 'तब यहां से चले जाने की इच्छा आपके मन में क्यों उठी ?' 'इच्छा तो मेरी यहां से चले जाने की नहीं है।' 'तब फिर क्या बात है ?' 'बात कुछ नहीं है, पर अवस्था जैसी है उससे मेरा यहां से चला जाना ही ठीक है। बड़ी ही कठिनाई से लड़खड़ाती ज़बान से जुगनू ने ये शब्द कहे और एक बार पद्मादेवी की ओर देखने की चेष्टा करके मुंह दूसरी ओर फेर लिया। पद्मादेवी का मन भी चंचल हो उठा जैसे वह उसके मन' की भीतरी बात की तह तक देख चुकी । परन्तु उसने कहा, 'हुआ क्या है, साफ-साफ क्यों नहीं कहते ? क्या उन्होंने कुछ कहा है, या कोई अनुचित व्यवहार किया है ?' 'नहीं, यह सब कुछ नहीं है । मुझसे किसीने कुछ नहीं कहा है, न मुझे यहां कोई कष्ट ही है । फिर आपकी दया का तो मैं बखान नहीं कर सकता। बड़े सुख से मैं यहां रहा । आप दोनों ही आदमी मेरा जितना यत्न से ख्याल रखते रहे, उसके लिए मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूं।' 'फिर ऐसी बात क्यों कही कि अवस्था." 'प्रोह, वह बात नहीं है पद्मादेवी, पर मैं कैसे कहूं। मेरे मन की मत पूछिए । मेरा मन ही मेरा दुश्मन बन गया है। मैं तो यहां से स्वप्न में भी जाने की इच्छा नहीं रखता, पर मेरा भाग्य बड़ा बोदा है, मन होता है आत्मघात कर लूं । हाय, मेरा सुख सदा के लिए मुझे छोड़ गया। अब तो यह जीवन ही भार है।' इतना कहकर जुगनू दोनों हाथों से मुंह ढांपकर चारपाई पर बैठ गया।