६४ बगुला के पंख 3 अब असंयत होकर पद्मादेवी एकदम उसके निकट चली आई। उसके सिर पर हाथ धरके कोमल-आर्द्र स्वर में कहा, 'तुम्हारा दुःख मैं नहीं देख सकती। तुम्हारा दुःख क्या है ? मुझसे कहो । मैं सर्वस्व देकर भी उसे दूर करूंगी।' 'नहीं, नहीं, आपकी ये बातें मैं सहन नहीं कर सकता। मुझे आप अाज्ञा दीजिए कि मैं अभी यहां से निकल जाऊं, अपने पापी हृदय को लेकर, और कभी यह काला मुंह आपको न दिखाऊं, बस, अब मैं नहीं ठहर सकता।' इतना कहकर वह उठकर उन्मत्त की भांति द्वार की ओर चला । पद्मा ने भी उन्मादिनी की भांति दौड़कर द्वार रोक लिया। दोनों हाथ पसारकर उन्होंने जैसे कराहते हुए कहा, 'नहीं, नहीं, तुम मुझे इस तरह छोड़कर नहीं जा सकते। नहीं जा सकते, ठहरो, तुम्हें मेरी कसम, ठहरो।' 'पाह, कसम क्यों दिला दी ? अब आप मना करती हैं तो मैं कैसे जा सकता हूं ! आप जो कहेंगी, वही मैं करूंगा।' उसने पद्मादेवी के मुख की तरफ एक बार देखा, फिर उसके सामने घुटनों के बल बैठकर कहा, 'किन्तु आप नाहक जिद कर रही हैं। मैं नहीं जानता कि कब मेरे मुंह से क्या निकल जाए। आप स्वर्ग की देवी हैं। मैं आपकी पूजा करता हूं, परन्तु जब आप सामने आती हैं तो मैं आपे में नहीं रह सकता। मेरा मन मेरे वश में नहीं रहता।' पद्मादेवी पीपल के पत्ते की भांति कांपने लगी। उसका सर्वांग पीला पड़ गया । उसने लड़खड़ाती ज़बान में कहा, 'यह तुम क्या कह रहे हो जगन' ? मेरा सिर घूम रहा है।' इतना कहते-कहते पद्मादेवी धम से पलंग पर बैठ गई। एक बार उसने जुगनू की ओर देखा और आंखें नीची कर लीं। 'मैं क्या कहना चाहता हूं, यह आप जानना चाहती हैं ?' जुगनू ने जैसे जलते हुए शब्दों में कहा। उन शब्दों को सुनकर एक बार पद्मादेवी ने फिर आंख उठाकर जुगनू की ओर देखा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे लाल-लाल ज्वलन्त लोहपिण्ड सामने खड़ा है, उसको ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसे जूड़ी चढ़ आई हो । जुगनू ने वैसे ही आवेशपूर्ण स्वर में कहा, 'आपके पति जैसा उदार पुरुष और आप जैसी श्रद्धा की पात्री स्त्री संसार में दुर्लभ हैं । मेरे रक्त की प्रत्येक बूंद आप दोनों की भक्त है । बड़े भाग्य से पूर्वजन्म के पुण्य से मुझे प्राप लोगों का आश्रय मिला । मेरा हृदय कृतज्ञता से भरा हुआ है। परन्तु आपको जब से मैंने देखा है, मन ही मन आपकी पूजा करता रहा हूं। स्त्री मात्र में मेरी
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