पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बगुला के पंख नई दृष्टि उत्पन्न हो गई है । मैंने ऐसा पहले कभी नहीं सोचा था। कभी ऐसा अनुभव मुझे नहीं हुआ था। आपको देखते ही एक अनिर्वचनीय' सुख का स्रोत मेरी रगों में बहने लगता है । आपकी वाणी स्वर्ग-संगीत के समान मेरे मन में लहर उत्पन्न करती है। आप जब दूसरी ओर देखती होती हैं, तब मैं आपकी रूप-सुधा का पान करता हूं, जितनी ही वह रूप-सुधा मैं पान करता हूं, उतनी ही प्यास बढ़ती है। कभी तृप्ति होती ही नहीं । मेरी इच्छा होती है कि आपके चरण-नख पर अपने उत्तप्त होंठ रख दूं और कहूं-हे सौन्दर्य की देवी, यह अधम तेरा दास और पुजारी है, तेरा चरण-किंकर है।' इतना कहते-कहते जुगनू एकदम चुप हो गया। उसने एक बार कनखियों से आंख उठाकर पद्मादेवी की ओर देखा, जो पत्थर की निश्चल मूर्ति बनी हुई थी। फिर उसने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया । फिर जैसे एकाएक व्यग्र हो उठा हो । उसने कहा, 'मैं जानता हूं, मैं महापापी हूं, पतित हूं। बौना होकर सूर्य को छूना चाहता हूं। मैं अपने को धिक्कार देता हूं। मैं जानता हूं कि ऐसी दुर्भावना को मन में स्थान देकर मैंने भयानक अपराध किया है । आप कभी मुझे क्षमा न करेंगी। पर मेरा मन मानता नहीं है । इसीसे मैं यहां अब एक क्षण भी ठहरना नहीं चाहता। इसी दम चल देना चाहता हूं। मैं आज ही इस नगर को छोड़ दूंगा । नगर ही क्यों, इस देश को ही त्याग दूंगा। मैं दूर, अति दूर चला जाऊंगा । और आपकी मोहिनी मूर्ति की स्मृति को भुलाने की चेष्टा करूंगा । और यदि मुझे इसमें सफलता न मिली तो मैं पेट पर पत्थर बांधकर किसी नदी में डूब मरूंगा। बस, अब मेरा यही निश्चय है। लो, मैं चला, अभी चला।' इतना कहकर जुगनू उन्मत्त की तरह झपटता हुआ बाहर की ओर चला। इसपर वध होती हुई गाय' की भांति आर्तनाद करके पद्मा ने कहा, 'अरे, अरे, यह क्या करते हो ? मत जाओ। मत जाओ।' जुगनू ने रुककर कहा, 'यह क्या ! इतनी बातें सुनने पर भी आप मुझे रोक रही हैं ? मुझसे नाराज़ नहीं हुईं, मुझसे घृणा नहीं की आपने ? मेरी ऐसी धृष्टता क्षमा कर दी ?' वह एकदम पद्मादेवी के निकट आ खड़ा हुआ । पद्मादेवी ने भर्राए हुए कण्ठ से कहा, 'मैं नहीं जानती कि मैं क्या जवाब दूं। न जाने मुझे क्या हो गया है, पर तुम मुझे इस तरह छोड़कर नहीं जा