बगुला के पंख ६५ 'अब तो मैं कविता कर लेती हूं मुंशी।' 'यह मैंने तुम्हारी तारीफ में कविता लिखी है। मैं पढ़गी। पता नहीं तुम पसन्द करोगे भी या नहीं।' 'देखू ज़रा, जुगनू ने कागज़ की ओर हाथ बढ़ा दिया। लेकिन शारदा ने लजाकर मुट्ठी भींच ली । कहा, 'नहीं, तुम मेरी हंसी उड़ानोगे.। नहीं दूंगी।' 'लेकिन पढ़ोगी तब तो सुन ही लूंगा।' 'तभी सुन लेना। इसी समय भीड़ से निकलते हुए परशुराम पर जुगनू की नज़र पड़ी । यद्यपि आज परिस्थिति कुछ दूसरी थी, फिर भी परशुराम को देखते ही जुगनू का खून सूख गया । वह परशुराम से आंख नहीं मिला सका। परशुराम ने पास आकर कहा, 'शारदा, तुम्हें डाक्टर साहब बुला रहे हैं।' और वह एक प्रकार से शारदा को धकेलता हुआ ले गया । मुंशी आग-भरी आंखों से उसे देखता ही रह गया । इसी समय शोभाराम म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन लाला बुलाकीदास को लेकर आए । जुगनू ने खड़े होकर लाला बुलाकीदास की अभ्यर्थना की और पास बिठाया। लाला बुलाकीदास साधारण पढ़े-लिखे प्रौढ़ अवस्था के आदमी थे। वे बड़े मिलनसार और सज्जन पुरुष भी थे। नगर में उनकी प्रतिष्ठा थी । अग्रवाल वैश्यों के वे नेता और चौधरी थे। उनका लोहे का कारोबार खूब बढ़ा-चढ़ा था । व्यापार के मामलों में उनकी नज़र पैनी थी। परन्तु उनके ये सभी गुण म्युनिसिपल चेअरमैन होने में तनिक भी सहायक न थे। एक आदर्श सज्जन और प्रतिष्ठित व्यक्ति होने पर भी उनमें वे गुण न थे जिनकी नेता होने के लिए आवश्यकता थी। वे सभा में भाषण बिलकुल नहीं दे सकते थे । अांखों की मुरव्वत और स्वभाव की शालीनता के कारण छोटा-बड़ा प्रत्येक जो जिस काम से उनके पास आता था, वह भला-बुरा जैसा भी हो, अपना काम करा ले जाता था। नाहीं उनसे हो नहीं सकती थी। शासन और व्यवस्था के लिए जिस कठोरता और दृढ़ता की आवश्यकता होती है, वह उनमें न थी। जुगनू ने उन्हें सादर पास विठाते हुए कहा, 'मैं तो आपका छोटा भाई, बल्कि बच्चा हूं। बिलकुल अयोग्य, और एक प्रकार से परदेशी, सहायकों और
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