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बाण भट्ट की आत्म-कथा

भाँति काली हो चली थीं। उन पर होने वाला पक्षि-विराव अब शान्त हो गया था। सामने की टूटी दीर्घिका अपने शान्त वक्षःस्थल में अाकाश की समस्त सम्पत्ति लिए हँस रही थी। सब-कुछ शान्त, निस्तब्ध और महिमापूर्ण था। मैंने एक क्षण के लिए सोचा कि पुजारी इस समय आ जाता, तो ज़र। हृदय खोल कर ठोली कर लेता। पर पुजारी न-जाने इस समय कहाँ था। जाने के पहले मैं एक बार फिर प्रांगण-गृह में गया, मानो कोई भूली हुई वस्तु खोजनी थी । मोह भी कैसी विचित्र वस्तु है। इस टूटे प्रांगण-गृह के प्रति मेरा आकर्षण इस समय कुछ बढ़-सा गया था। सूना तो वह सदा से था; लेकिन भट्टिनी के निकल जाने के बाद वह विकट सूना हो गया था। उसकी दीवारें मानो बार-बार चिल्ला कर कह रही थीं कि आज हम यथार्थ में सूनी हैं । कुछ देर तक मैं अकारण वहाँ ठिठका खड़ा रहा। भट्टिनी की एक दिन की पूजा-वेदी अब भी गीली थी । उस पर के महावराह चले गए थे ; पर अपनी उद्धार-महिमा का चिह उस पर छोड़ गए थे ; थोड़ी देर तक मैं उस वेदी की ओर मुग्ध-भाव से देखता रहा और फिर एक बार उन तान्त्रिक चिहों की ओर भी स्थिर नयनों से देखा । मुझे भैरवी चक्र के चिह्नों की पृष्ठभूमि में महावराह की वेदी ऐसी अद्भुत दिखाई पड़ी कि एक क्षण के लिए मैं उसे भविष्य का निमित्त-निर्देशक समझे बिना न रह सका। यह एक दिन के लिए जो परस्पर-विरोधी प्रतीकों का समन्वय हुआ है, वह आकस्मिक हो सकता है; पर अकारण निश्चय ही नहीं है। इसमें किसी भावी विरोधाभास की सूचना है। हठात् मेरे मुँह से मेरी बनाई हुई एक पुरानी आर्या निकल पड़ी ।। उन दिनों मैं वाराणसी के पास जनपद में पुराण-पाठ का अभिनय कर रहा था। मेरे हृदय में कहीं भी भक्ति का लेश भी नहीं था ; पर स्वेद, अश्रु और रोमांच का मैंने इतना उत्तम आयोजन