पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/९९

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षष्ठ उच्छ्वास शिविकाओं के निकलते-निकलते गोधूलि-काल हो गया । विलम्ब का कारण मैं ही था। गंगा-तट की नौका-व्यवस्था देखे बिना भट्टिनी को वहाँ भेजना मुझे ठीक नहीं हुँचा । गंगा-तीर से जब मैं लौटा, तो दिवस क्षीण हो अाया था । सूर्य मण्डल परिरात प्रियंगु-मंजरी के केसर के समान पिंजरिमा से रंगा हुआ पश्चिम समुद्र की ओर लटक चुका था । अस्तकालीन धूप दिग्वधुअों के मुख पर पड़ी हुई एक ऐसी महीन चादर के समान दिख रही थी, जो कुसुम्भ-रस की अविरल वर्षा से लाल और कोमल हो गई हो । प्रकाश की नीलिमा बहुत- कुछ दूर हो गई थी और वह चकोर की नयन-तारका के समान पिंगल-वर्ण की कान्ति से विलिप्त हो चुका था । कोकिल के विलोचनों के समान बभ्रु-वर्ण किरणें समस्त भुवन मण्डल को अरुणायित कर रही थीं। अधिक प्रकाशयुक एकाध नक्षत्र पूर्व-गगन में उन्मषित होते-से दिख रहे थे और सारी सन्ध्या मोहत-वेशा गैरिकधारिणी किसी भैरवी के समान चण्डी-मण्डप में उतर रही थी। शिविकाएँ पहले से ही उपस्थित थीं। भट्टिनी और निपुरिएका तैयार बैठी थीं। मेरे आते ही वे शिविकाओं पर बैठ गई और गंगा-तीर के लिए प्रस्थित हो गई। प्रांगण-गृह से बाहर निकल कर मैंने एक बार चारों ओर देखा। श्रकाश की अरुणिमा धुल गई थी। वह गाढ़े नील के पट्ट के समान सिर पर फैला हुआ दिख रहा था । मध्याह की नीलिमा अब अधिक सान्द्र हो गई थी । आस-पास की वृक्षावलियों की हरीतिमा कालिमा में बदल चुकी थी । वनराजियाँ वन्य महिष के मलीमस शरीर की