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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की अाम-कथा ६५ साथ ही साथ श्राकाश-मण्डल में विकट विद्युत-स्फोट हुआ । गंगा की लहरें एक-दूसरे से क्रुद्ध भाव से भिड़ गई । अाकाश धूलि से, दिङ- मण्डल अन्धकार से और गंगा का प्रवाह फेन-पेज से आच्छादित हो गया । देखते-देखते भट्टिनर की नौका अन्धकार में अदृश्य हो गई। मेरे हृदय और मस्तिष्क निष्क्रिय-निश्चेष्ट हो रहे । मुँह से आवाज़ नहीं निकली। पैरों के नीचे पृथ्वी कुम्भकार के चक्र की भाँति घूमने लगी । इसी समय बिजली चमकी । नाव धारा में बैठ गई । निपुणिका श्रौर भट्टिनी पानी में कूद पड़ीं । फिर अन्धकार, गर्जन, फूत्कार ! मेरा मस्तक झनझना उठा। शिराएँ इस प्रकार स्फीत हो उठी, जैसे वे रक्त के दबाव को अधिक नहीं सह सकेंगी । बादल फैलते गए, अधी का वेग बढ़ता गया, गर्जन का शब्द ऊँचा होता गया, फूत्कार का विकट विराव दिङ मए डल में व्याप्त होता गया । मैं चिल्ला उठा--- त्राहि अार्य, त्राहि ! इसी समय मेरे ललाट में फिर एक बार अंगुलि- स्पर्श का अनुभव हुआ । गंगा की धारा शान्त हो गई, अाकाश स्वच्छ हो गया और भुवन-मण्डल प्रसन्न जान पड़ा। मैंने देखा, भट्टिनी नौका में आराम कर रही हैं । निपुणिका उनके पैरों के पास बैठी हुई कुछ कह रही है । भट्टिनी का मुख प्रसन्न है, अखें उत्सुकता से भरी हैं और कपोल-पालि विकसित हैं। फिर मैंने बाबा की ओर देखा, उनकी अध- खुली अखिों में मीठी-मीठी हँसी है। मैंने भीत-भीत भाव से कहा--- "बाबा, यह क्या देखा मैंने १ ऐसा ही होने वाला है क्या ?? बाबा बच्चों के समान विनोद करते हुए बोले---'मैं क्या जानू १: फिर उनकी अखें मूंद गई । कुछ भावावेश की-सी अवस्था में बोले-'कितनी माया जानती है, पगली ! फिर मुझे लक्ष्य करके बोले-‘क्यों रे, डरता है क्या ? ‘मेरा अपराध क्षमा करें, अार्य ! तू ने कोई अपराध किया है रे ??