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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा उत्तरीय हटा दिया और मेरुदण्ड की धीरे-धीरे परीक्षा की। अधी पीठ तक आकर उन्होंने हाथ हटा लिया । बोले-'मैं ठीक कह रहा हूँ, महामाया ! यह देखो, इसकी कुण्डलिनी जाग्रत है ।। महामाया भैरवी ने भी हाथ से उस स्थान को छूकर देखा। आश्वस्त होकर बोलीं-‘तो जैसी आज्ञा हो, बाबा ! इसे कुएँ के पास बैठा लेना ! फिर मेरी ओर देख कर बोले- ‘अमंगल दूर हो जायगा, पर तु अमंगल को मंगल क्यों नहीं मान लेता १ आज पूर्णिमा लगते ही इन लोगों की गोपन साधना होगी। महामाया तुझे प्रसाद देगी । उसे तू निष्ठा के साथ ग्रहण कर और देख बाबा, भटकता न फिर। इस ब्रह्माण्ड का प्रत्येक अणु देवता है। देवता ने जिस रूप में तुझे सब से अधिक मोहित किया है, उसी की पूजा कर । श्रा, तुझे मन्त्र बता दें । मैं बाबा के पास इस प्रकार खिंच गया, जैसे लोहा चुम्बक से खिंच जाता है । उन्होंने मुझे एक मन्त्र बताया और कहा–'जब तेरे चित्त में भय, लोभ और मीह का संचार हो, तो तू इसे ही जपा कर ।' मैंने भक्तिपूर्वक बाबा की बात स्वीकार की। थोड़ी देर तक बाबा निश्चल-से बैठे रहे। फिर किसी के पैरों की आहट सुन कर उन्होंने आंखें खोलीं । बोले-'कौन है ? ‘विरतिवज्र हूँ, श्रयं ! ‘ो ।' विरतिवज्र की अवस्था पच्चीस के नीचे ही जान पड़ती थी। उनका मुखमण्डल स्वच्छ, मोहनीय और आकर्षक था । उन्होंने बौद्ध भिक्षु के समान चीवर धारण किया था; पर चीवर का रंग पीला न होकर लाल था। चाँदनी में वह रंग और भी खिल उठा था। उनका कुण्ठ स्वर भी कोमल और बालकोचित था। बाबा को भूमिष्ठ होकर प्रणाम कर के वे एक स्थान पर शान्त भाव से बैठ रहे। बाबा उसी