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बाण भट्ट की आत्म-कथा

और स्वच्छ विराज रहा था। ज्योत्स्ना के प्रतिफलन से उस मुखमण्डल की स्निग्धता बढ़ गई थी | प्रथम बार मैंने उन्हें ठीक नहीं समझा था। उनकी छितराई अाँखों और तनी भृकुटियों ने मेरे मन में अश्रद्धा का भाव ला दिया था। इस बार मैंने पार्वती-प्रतिमा के समान निश्चल-गौर मुखमण्डल को देखकर अपनी ग़लती समझी । अघोर भैरव के पाश्र्व-देश में शान्त भाव से बैठी हुई महामायाँ भगवान् शंकर की पाश्र्ववर्तिनी उमा के समान शान्त-मनोरम दिख रही र्थी । अनुष्ठान की विधियों के सम्पादन का भार उन्हीं पर था। बाबा शान्त-निःस्पन्द बैठे थे | महामाया कारण-धट से पात्र पूर्ण कर रही थीं और अस्फुट ध्वनि में कुछ मन्त्र पढ़ती जा रही थीं। सभी साधकों के पात्र भरे गए। महामाया ने पहले बाबा अघोर भैरव के हाथ में पात्र दिया । देने के पूर्व उन्होंने कुछ मन्त्र पढे । सम्भवतः वह सुधादेवी का ध्यान-मन्त्र था। फिर कई बार दोनों हाथों के सहयोग से कुछ विशेष मुद्राअों से पात्र को मुद्रायित किया । फिर एक बार अपने चारों ओर चुटकी बजा कर न-जाने कौन-सा अनुष्ठान किया। शायद वह दिग्बन्धन की विधि थी। बाबा ने ज्यों ही हाथ में पात्र लिया, त्यों ही साधकों ने भी अपने-अपने पात्र उठा लिए । अत्यन्त मृदु मन्द्र कण्ठ से विरतिवज्र ने प्रथम पात्र की वन्दना-स्तुति पढ़ी :--- श्रीमद् भैरव शेखर प्रविलच्चन्द्रामृताप्लावितम् क्षेत्राधीश्वरयोगिनीगण महासिद्धेः समासेवितम् । आनन्दर्णिचकं महात्मकमिदं साझान्त्रिखरतामृतम् बन्दे श्री प्रथमं कराम्बुजगतं पात्र विशुद्धिप्रदम् ।' मन्त्र समाप्त होते ही बाबा ने महामाया के अधरोष्ठों से पात्र स्पर्श कराया और फिर धीरे-धीरे बिना किसी प्रकार का शब्द किए ===r41 ••• - 'तु० कोलावधिनिय, इस उल्लास