पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१४७

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अष्टम उच्छवास धूलि-वेला में मल्लाहों ने नाव खोल दी । इसके थोड़ी देर पहले ही प्राचार्य सुगतभद्र भट्टिनी को स्नेहपूर्वक श्राशीर्वाद देकर और उनके पिता के पास पहुँचाने का आश्वासन देकर चले गए थे। भट्टिनी बड़ी देर तक उसी ओर उदास भाव से ताकती रही, जिस शोर आचार्य गए थे । उनकी घन चिक्कन चिकुर-राशि अस्त-व्यस्त होकर मुख पर पड़ी हुई थी, जिसे देख्न कर शैवाल-जाल में उलझे हुए पद्म- पुष्प का भ्रम होता था । धीरे-धीरे गंगा की धारा में लाल चन्द्रमा का बिम्ब प्रकट हुअा अौर देखते-देखते ई-सौ रूपों में बिखर कर अवगाहन करने लगा, मानी दिन-भरे फाग खेल लेने के बाद अब अपने शरीर पर लिपटे हुए पिष्टातक चूर्ण (अवर) को धो डालना चाहता हो । रात की कालिमा धनी होती गई, ज्योत्स्ना धवलतर होकर सारे गंगा पुलिन को दुग्धधौत-सी बनाने लगी और गंगा की चटुल वीचियों पर चन्द्रमा तथा नक्षत्र-मण्डल का नृत्य होने लगा; पर भट्टिनी वैसी ही उदास बैठी रहीं। मुझसे अधिक न देखा गया । व्यथित होकर बोला- ‘देवि, चिन्ता छोड़ो, बाण भट्ट पर विश्वास रखो । आचार्यपाद का आशीर्वाद सफल होगा। मैं जैसे भी हो, अत्रभवती को विषम समर- विजयी वाहीक-विमर्दन, प्रत्यन्त-बाड़व, अज्ञात-प्रतिस्पर्द्धि-विकट देव- पुत्र तुवर मिलिन्द के पास पहुँचा दंगा । मगध तो मैं केवल अाचार्य- पाद की श्राशा-पालन के निमित्त जा रहा हूँ। मैं टीक नहीं कह सकता कि मुझे मगध ले जाने की आज्ञा उन्होंने क्यों दी है; देर से सही, मैं अपनी प्रतिज्ञा पालन करूगा ।। भट्टिनी ने मेरी प्रार्थना सुन ली । अपनी मृणाल-कोमल अँगु-