बण भट्ट की श्राम-कथा चन्द्र-मण्डल को अाकाश की नीलिमा कलंकित नहीं करती और जाह्नवी को वारि-धारा को धरती का कलुष स्पर्श भी नहीं करता। आपके अवसादयुक्त वाक्य आपके योग्य नहीं हैं, देवि ! स्यारों के स्पर्श से सिंह-किशोरी कलुषित नहीं होती । असुरों के गृह में जाने से लक्ष्मी धर्षिता नहीं होती । चींटियों के स्पर्श से कामधेनु अपमानित नहीं होती । चरित्रहीनों के बीच वास करने से सरस्वती कलंकित नहीं होती । अश्वस्त हो देवि, तुम पवित्रता की मूर्ति हो, कल्याण की खनि हो । समग्र श्रायवर्स के ब्राह्मण और श्रमण, देव-मन्दिर और शस्य-क्षेत्र, अनाथ और नारी, पौर और जनपद जिस दिन अपने रक्षक देवपुत्र तुवरमिलिन्द की नयनतारा को पहचान लेंगे, उस दिन वे मन्दिरों में तुम्हारी मूर्तियाँ बना कर पूजेंगे, और यदि कहीं भी इस चिरदृप्त देश में प्राण-कण का लेश-मात्र भी अवशिष्ट होगा, तो प्रत्यन्त-दस्युओं को अपने किए का कठोर प्रायश्चित्त करना होगा । देवि, मैं सचमुच नहीं जानता कि मैं कवि हूँ। मुझे एक-एक श्लोक लिखने में घटियों तक माथापच्ची करनी होती है ; परन्तु मैं यदि कवि होता, तो क्या करता, आप जानती हैं ? मैं ऐसा गान लिखता कि आर्यावर्त के इस कोने से उस कोने तक देवपुत्र की नयनतारा का धवल यश फैल जाता । मैं ऐसा काव्य लिखता कि युग-युग तक इस पवित्र आर्य-भूमि में नारी-सौन्दर्य की पूजा होती रहती और इस पवित्र देव-प्रतिमा को अपमानित करने का साहस किसी को न होता । पर देवि, मैं कवि नहीं हैं। | भट्टिनी का मुख-मंडल प्रभात-कालीन नेषमल्लिका की भाँति खिल गया । स्मयमान मुख की कपोल-पालि विकसित हो गई । नयन-कोरकों में बंकिम आनन्द-रेखा विद्युत् की भाँति खेल गई। ललाटपट्ट की वलियाँ विलीन हो गई और वह अष्टमी के चन्द्रमा के समान मनोहर हो गया। उनके अशोक-किसलय के समान अतिम अधरोष्ठ चंचल