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बाण भट्ट की आत्म-कथा

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हुआ कि उस रात को दीदी दो बजे तक चुपचाप बैठी रहीं और फिर एकाएक अपनी टेबिल पर आकर लिखने लगीं । रात-भर लिखती रहीं और लिखने में ऐसी तन्मय थी कि दूसरे दिन आठ बजे तक लालटेन बुझाए बिना लिखती ही रही। फिर टेबिल पर ही सिर रखकर लेट गई और शाम के तीन बजे तक लेटी रही । फिर उन्होने स्नान किया और अब चाय पीने जा रही हैं । चाय पीते-पीते दीदी से बात करना बड़ा मनोरंजक होता था, सो मैंने अपना भाग्य सराहा । दादी चाय पीने का आयोजन कर रही थी । मुझे देखकर बहुत प्रसन्न हुई और बोली -- 'तुझे हो तो खोज रही थी । शोण-यात्रा में उपलब्ध सामग्री का हिन्दी-रुपान्तर मैंने कर लिया है। तु इसे एक बार पढ़ तो भला । देख, मेरी हिन्दी में जो ग़लती है, उसे सुधार दे और आनन्द से इसका अंगरेज़ी में उल्था करा ले । ले भला !'

यह ‘ले भला ! दादी का स्नेह-संभापण था। जब वे अपने नातियों पर बहुत खुश होतीं, तो उन्हें कुछ देते समय कहती जातीं—ले भना!' आज तक इस स्नेह-वाक्य के साथ चाय और बिस्कुट ही मिला करते ये ; पर आज मिला गृत्त का एक बड़ा-सा पुलिंदा । दीदी ने उसे देकर कहा कि यह उनकी दो सौ मील की पैदल यात्रा का सुपरिणाम है। फिर कहने लगे--इसे आज ही रात को ठीक कर ले और कल पाँच बजे की गाड़ी से कलकत्ते जाकरे टाइप कर ला। परसों मुझे इसकी कापियाँ मिल जानी चाहिए।'
  मैंने सकुचाते हुए कहा-'दीदी, कोई पाण्डुलिपि मिली है क्या ?'
दीदी ने डाँटते हुए कहा--"एक बार पढ़ के तो देख। इसका रहस्य फिर पूछना। तु बड़ा आलसी है। देख रे, बड़े दुःख की बात बता रही हूँ। पुरुष का जन्म पाया है, आलस छोड़ कर काम कर । स्त्रियां चाहे भी तो आलस्यहीन होकर कहाँ काम कर सकती हैं ?