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बाण भट्ट की आत्म-कथा

यण भट्ट की आत्मकथा । १४६ थीं । जिस अशुभ रात्रि को मैं तुम्हारे आश्रय को छोड़ कर भागी, उस रात्रि को शावि लक की दूकान बन्द थी । वह तुम्हारे प्रकरण का अभिनय देखने गया था। मैं नेपथ्य से नटी के वेश में ही भाग पड़ी थी । यी देर तक मैं उजयिनी की सूनी गलियों में मारी-मारी फिरी । उस रात्रि को उजयिनी के समस्त छो-पुरुष बाण भट्ट का अभिनय देखने गए हुए थे । गवाक्षों के कपाट बन्द थे । अलिन्दों की देहलियाँ सूनी थीं । वीशियों में यत्र-तत्र राजकीय प्रदीप अन्धकार दूर करने का असफल प्रयत्न कर रहे थे। मैं एक-दो घटी तक कुछ ठीक न कर सकी कि कहाँ जाऊँ। मेरा मन बुरी तरह आहत था । मैं लेजा और निराशा से पागल हो गई थी । आज सोचती हूँ, तो जान पड़ता है, मैंने कितनी बड़ी मूर्खता का काम किया था । घूमते-घूमते मैं थक गई और एक बार मन में आया कि फिर लौट कर तुम्हारे ही श्राश्रय में चली जाऊँ । मुझे पूरा विश्वास था कि तुम मुझे क्षमा भी कर दोगे । पर मेरा भाग्य अप्रसन्न था। मैं आगे बढ़ी। मुझे बिल्कुल मालूम नहीं था कि मैं कहाँ चली जा रही हूँ ! धूमते-घामते मैं एक बड़े प्रसाद के सामने पहुँच गई। मुझे ऐसा लगा कि यह ज़रूर परमभट्टारक के किसी राजकर्मचारी का प्रासाद होगा । प्रासाद के भीतर दीपमालिका- सी जगमग हो रही थी । भीतर दो-चार दासियाँ शायद रही हों; पर बाहर कोई नहीं था। मैं अन्धकार में एक जगह खड़ी होकर सोचने लगी कि क्या यहाँ मुझे एके रात के लिए कोई रुकने देगा ? इसी समय मैं जिस स्थान पर खड़ी थी, उसके पास ही हलचल-सी हुई। फिर दो काले भूत-जैसे आदमी उस स्थान के एक बिल में से निकल पड़े । उनके सारे शरीर में तेल चुपड़ा हुआ था और पहनावे में एक नील लंगोट के अतिरिक्त और कुछ न था। बाहर आते ही वे कुछ सँभालने लगे । मैं उन्हें देखते ही मारे डर के चिल्ला उठी और मूर्छित छोकर धड़ाम से गिर गई । मेरा चिल्लाना सुनते ही ये सब-कुछ छोड़